098.
रागसारङ्ग
भूपके भागकी अधिकाई |
टूट्यो धनुष, मनोरथ पूज्यौ, बिधि सब बात बनाई ||
तबतें दिन-दिन उदय जनकको जबतें जानकी जाई |
अब यहि ब्याह सफल भयो जीवन, त्रिभुवन बिदित बड़ाई ||
बारहि बार पहुनई ऐहैं राम लषन दोउ भाई |
एहि आनन्द मगन पुरबासिन्ह देहदसा बिसराई ||
सादर सकल बिलोकत रामहि, काम-कोटि छबि छाई |
यह सुख समौ समाज एक मुख क्यों तुलसी कहै गाई ||