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गीतों के हार / निर्मला जोशी

गीतों के हार
मैं तो रही भटकती जग में
शब्दों के द्वारे हर बार।
कौन डालकर गया अचानक
रस भीने गीतों के हार।

कभी दर्द तक कहा नहीं था, कभी नहीं आंखें रोई
कभी नहीं वाचाल हुई थी, कभी नहीं जागी सोई।
फिर कैसे हमदर्द बन गए, पीर बांटने दौड़ पड़े
एकाकीपन में जीवन के, मीत बने यह दिखे खड़े।
जिसको छला समय ने हर क्षण
जो टूटी बनकर फिर दर्पण।
इन्हें देख मोहक हो जाता
क्यों प्राणों का यह संसार।

रोज़ सुबह डयोढ़ी पर चढ़कर कानों में कुछ कह जाते
और शाम ढलने से पहले, काजल आंज-आंज जाते।
तन-मन समय-समर्पित इनको, फिर भी हैं दिखते विपरीत
सबसे जीत गई हूँ लेकिन, इनको कभी न पाई जीत।
गली-गली उपहासित हूँ मैं
आंगन-आंगन बदनामी।
नाता गहन जताकर रूठे
कल तक जो झंकृत थे तार।

कैसा है इनसे यह नाता कैसे ये संबंध हुए
मैं हूँ कस्तूरी मृग मेरे ललित गीत नव-गंध हुए।
पांवों के छाले सब फूटे, लहू-लुहान हुई गति मंद
मेरी पीड़ा को हर लेंगे, पाहुन बनकर आए छंद।
मैं तो कस्र्ण कहानी कोमल
दुनिया से मेरा अनुबंध।
आहत पाटल को कब मिलता
शूलों से बढ़कर उपहार।