साँझ की विदा के क्षण अनजाने
आ बिखरा जाते हैं सिरहाने
पोर-पोर कँपती उँगलियों से
थे अन्तिम बार के प्रणाम।
छत ऊपर लौट चुकी होंगी अब
बगुलों की सितबरनी पातें
छिन अबेर आँगन में चिड़ियों की
चुक जाएँगी सारी बातें
फिर ख़ालीपन की ध्वनियाँ विचित्र
सिरजेंगी अजब-अजब अर्थ-चित्र
खिड़की में उलझी रह जाएगी
सिर्फ़ एक तारे की शाम।
द्वार पार से निर्वासित प्रकाश
देहरी पर रोपेगा छाँहें
कमरे भर जलता एकान्त लिए
उठेंगी अन्धेरे की बाँहें
रात गए पच्छिम का वह कोना
तन-मन पर कर जाएगा टोना
आकाशे उगेगा तुम्हारे—
लिए एक प्यारा-सा नाम।
3 जनवरी 1965 के ’धर्मयुग’ में प्रकाशित।