कुछ रात गये, कुछ रात रहे जब मेरी नींद उचट जाती
चुपके-चुपके प्रिय की मीठी-मीठी-सी याद उभर आती
तारों की झिलमिल चिलमन से
मुस्काती जब चन्द्रिका उधर
पलकों के झिलमिल झूले पर
खिल-खिल उठता मुखचन्द्र इधर
उस ओर जम्हाई लेकर जब कोई चुटकियाँ बजाता है
रसवन्ती स्मृति से छल-छल मन की गागर रस छलकाती
वे दिन भी क्या प्यारे दिन थे
जब चुप-चुप नजरें मिलती थीं
आँखों ही आँखों में मन की-
भाषा की बाँछें खिलती थीं
दुनिया की नजरों से बचकर जब नजर मिलायी जाती थी
हम कुछ-कुछ कह-सुन लेते थे, कुछ कथा अधूरी रह जाती
जब नभ धरती से मिलता है
सावन-भादो कहलाते हैं
आँसू की झड़ियों के मिस ही-
बिछुड़े दो दिल मिल पाते हैं
उखड़ी-उखड़ी इन साँसों को कुछ ऐसी ही उम्मीद बँधी
मिल जाय कहीं अपना प्रिय भी इसलिए आँख भर-भर आती