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गीत पाया मगर / जनार्दन राय

गीत पाया मगर गा सुनाऊँ किसे,
देख पाया नहीं चाहकर भी जिसे।
फूल पनपे, खिले, शोभ पाये नहीं,
रूप निखरे मगर देख पाये नहीं।
खोजती रही आँख व्याकुल उसे,
देख पाया नहीं चाहकर भी जिसे।

थी तमन्ना सुनाने की गाथा सभी,
थी न सोची छिपाने की बातें कभी।
मिल सकी एक क्षण भी न फुर्सत उसे,
देख पाया नहीं चाहकर भी जिसे।
गीत पाया मगर गा सुनाऊँ किसे,
देख पाया नहीं चाहकर भी जिसे।

दर्द पलता रहा, गीत बनता रहा,
भाव उठता रहा, व्यक्त होता रहा।
वेदना थी बड़ी कह न पाया उसे,
देख पाया नहीं चाहकर भी जिसे।
गीत पाया मगर गा सुनाऊँ किसे,
देख पाया नहीं चाहकर भी जिसे।

तान पंचम सुनाने लगी कोकिला,
वन, उपवन सुहाना सलौना मिला।
मन-पावन उड़ चला, पर न पाया उसे,
देख पाया नहीं चाहकर भी जिसे।
गीत पाया मगर गा सुनाऊँ किसे,
देख पाया नहीं चाहकर भी जिसे।

है मजबूर इंसान कितना यहाँ,
रह जाता खड़ा वह जहाँ के तहाँ।
मन रहा खोजता पर पता न उसे,
देख पाया नहीं चाहकर भी जिसे।
गीत पाया मगर गा सुनाऊँ किसे,
देख पाया नहीं चाहकर भी जिसे।

चाह बढ़ती रही, रात घटती नहीं,
कैद करता नयन, जाने देता नहीं।
थक गये हैं चरण खोजते ही उसे,
देख पाया नहीं चाहकर भी जिसे।
गीत पाया मगर गा सुनाऊँ किसे,
देख पाया नहीं चाहकर भी जिसे।

मिलके जाता बिछुड़ भी तो चिन्तानहीं,
दूर मंजिल हमेशा खिसकती रही।
निज विवशता सुनाऊँ कहां पा उसे,
देख पाया नहीं चाहकर भी जिसे।
गीत पाया मगर गा सुनाऊँ किसे,
देख पाया नहीं चाहकर भी जिसे।

-समर्था,
6.5.1984 ई.