गीत मेरे मन का
गाऊँ मैं कैसे
है बहुत अव्यक्त सा
भाव सीने में भरा
मौन मुखरित जब हुआ
दर्द कर जाता हरा।
खो चुका जो चैन है
पाऊँ मैं कैसे।
जब क्षितिज के पार से
टेरता मनुहार है
मैं बसी इस पार हूँ
वो बसा उस पार है।
वेदना को ओढ़कर
आऊँ मैं कैसे।
अनकही-सी बात पर
गीत लिखता पीर है
उस मिलन की याद में
नयन भरता नीर है।
भाव छन्दों में ढला
छुपाऊँ मैं कैसे।