हारी थकी
कलम का सच है
गीत लिखे
कुछ औने-पौने।
कहाँ गये
संवाद मौन के
नयनों की भाषा के दर्शन
कितनी मृदु मधु छवियों वाले
अनुभावों-गालों के दर्पन
कलम खड़ी रह गयी
ठगी सी
शब्द हो गए कितने बौने।
भाषाएँ व्याकरण छन्द के
शास्त्र पढ़े
पर बात बनी कब
हाथ मसलते खड़े रह गये
सम्प्रेषण की धार
थमी जब
प्यासे ही रह गए रेत पर
भटके हुए तृप्ति के छौने
जगी नहीं
कबिरा की बानी
दरद नहीं मीरा का जाना
झनके नहीं तन्त्र भीतर के
कब अनहद का
स्वर पहचाना
किन्तु मिले जब
सदा हमें ही
काव्य श्रेष्ठ के
मिले दिठौने।
27.9.2017