अब तुमको अर्पित करने को मेरे पास बचा हीं क्या है !
क्षीर क्या मेरे बचपन का
और कहाँ जग के परनाले,
इनसे मिलकर दूषित होने
से ऐसा था कौन बचा ले;
यह था जिससे चरण तुम्हारा
धो सकता तो मैं न लजाता,
अब तुमको अर्पित करने को मेरे पास बचा हीं क्या है !
यौवन का वह सावन जिसमें
जो चाहे सब रस बरसा ले,
पर मेरी स्वर्गिक मदिरा को
सोख गये माटी के प्याले,
अगर कहीं तुम तब आ जाते
जी-भर पीते,भीग-नहाते,
रस से पावन,हे मनभावन,विधना ने विरचा हीं क्या है !
अब तुमको अर्पित करने को मेरे पास बचा हीं क्या है !
अब तो जीवन की संध्या में
है मेरी आँखों में पानी
झलक रही है जिसमें निशि की
शंका,दिन की विषम कहानी--
कर्दम पर पंकज की कलिका,
मरुस्थल पर मानस जल-कलकल--
लौट नहीं जो आ सकता है अब उसकी चर्चा हीं क्या है !
अब तुमको अर्पित करने को मेरे पास बचा हीं क्या है !
मरुथल,कर्दम निकट तुम्हारे
जाते,ज़ाहिर है शरमाए
लेकिन मानस-पंकज भी तो
सम्मुख हो सूखे कुम्हलाए;
नीरस-सरस, अपावन-पावन
छू न तुम्हें कुछ भी पाता है,
इतना ही संतोष कि मेरा
स्वर कुछ साथ दिये जाता है,
गीत छोड़कर साथ तुम्हारे मानव का पहुँचा हीं क्या है !
अब तुमको अर्पित करने को मेरे पास बचा हीं क्या है !