गुंज रहा ‘मानस’ तेरा है भारत के घर-घर में,
किन्तु न शान्ति समा पाती है, जन गण के हिय मन में।
प्रीति रीति मिटती जाती है,
भौतिक सुख को पा-पा।
ज्ञान-चक्षु है खुल नहीं पाता,
लोभ दृष्टि को पा-पा।
स्नेह-दीप बुझता रहता,
अन्याय-अनिल को पा-पा।
शान्ति चिता जलती रहती है,
निज अशान्ति को पा-पा।
नीति-प्रीति के रक्षक तुलसी,
ज्ञान जगा जन-मन में।
लहरा दे आनन्द-उदधि,
धरती के हर कण-कण में।
शासन-सूत्र हाथ में जिसके,
बना दशानन वह है।
छीन रहा सत्ता उससे,
लख रहा शतानन वह है।
तारक-असुर भरे जग में,
अब कहाँ षडानन वह है?
दूर कर सके विघ्न हमारा,
कहाँ गजानन वह है?
न्याय-नीति के प्रेरक तुलसी,
भर साहस जन-जन में।
बरसा दे सुख शान्ति यहाँ,
संसृति के हर कण-कण में।
पापालय तो पापालय,
बदनाम हुआ पुण्यालय।
अस्त्र-शस्त्र से भरा हुआ है,
देख यहां धर्मालय।
विश्वामित्र, वशिष्ट जहाँ हों,
रह न गया विद्यालय।
राम-भरत का शिष्य जहाँ हो,
रह न गया शिक्षालय।
अज्ञान तिमिर के नाशक तुलसी,
ज्ञान भरो जन-जन में।
प्यार करे जो मनुज मनुज को,
भर जग के कण-कण में।
द्रुपद-सुता क्रन्दन करती,
चिल्लाती सीता माता।
दुस्शासन, रावण हंसता,
घबड़ाती भारत माता।
इज्जत लुटती देख सुता की,
बोल न पाती माता।
कहाँ सो गये जन-जन के,
बोलो सौभाग्य-विधाता?
रामचन्द्र रघुनायक-सेवक,
तुलसी आ जन-गण में।
भक्ति-भाव की वर्षा कर,
जगतीतल के कण-कण में।
मन्दोदरी विलख समझाती,
समझ न पाता रावण।
डाल न सकता असर बालि पर,
तारा-लोचन-सावन।
सभी बने मदहोश यहाँ,
करते हैं सब मन भावन।
लात खा रहा रोज विभीषण,
वचन बोलता पावन।
शरणागति का भाव जगा,
तुलसी जग के हिय-मन में।
करुणा की धारा उमड़ा दे,
भारत के कण-कण में।
गुंज रहा मानस तेरा है भारत के घर-घर में।
किन्तु न शान्ति समा पाती है जन-गण के हिय-मन में॥
-श्री रामबहादुर निवास,
देसुआ
31.7.1984 ई.