Last modified on 24 मार्च 2012, at 14:20

गुजरात (1) / मदन गोपाल लढ़ा


लौटने के बाद भी
कहा लौट पाते हैं हम
सैकड़ों कोसों के
फासले के बावजूद।

सावण के लोर-सी
घिर-घिर कर आती है
स्मृतियाँ
खींच ले जाती है
फिर से
सौराष्ट्र की सरजमीं पर
ठीक वही तड़प
जो महसूसता था मैं
धोरों के लिए
गुजरात रहते।

गूंजने लगती है
डूंगर वाले
खोडियार मंदिर की घंटिया
'मासी नी लॉज' के
ओळा-रोटला की
याद भर से
मुंह में भर आता है पानी
नजरें तलाशने लगती है
सड़क पर
किसी छकड़े को
जाने क्यों
गरबा के बोल
गुनगुनाने लगता है
मन।