Last modified on 24 मई 2011, at 10:50

गुज़रे हैं नाग / कुमार रवींद्र

लगता है
गुज़रे हैं नाग इसी घाटी से

नागों के दंशों से चिह्नित हैं
घाटी के पेड़ सभी
सुनते हैं, इन पेड़ों के नीचे
थे अमृत-कुंड कभी

आती है गंध
जले फूलों की माटी से

नागों का घाटी से होकर यों जाना
अचरज है हमें हुआ
गरुड़ों की धरती यह
इस पर थी देवों की रही दुआ

हटकर है
यह घटना पिछली परिपाटी से

नाग नदी में उतरे होंगे कल
ज़हरीली नदी हुई
सपनों के टापू पर
ज़हर-बुझी, हाँ, पूरी सदी हुई

बचे वही दिन
जो हैं बौने क़द-काठी से