गुनगुनी-सी धूप आई
ओढ़ कर गाँती-रजाई ।
ठण्ड से ठिठुरी निशा थी
थरथराता भोर अब तक,
दिन हुआ लेकिन शिशिर का
है हवा पर जोर अब तक;
ओस-बूँदें दुबड़ियों को
चाँप कर बैठी हुई हैं,
नीड़ में सारी चिड़ैयां
काँप कर बैठी हुई हैं;
हिम-परत-सी साँस निशि भर
अब कहीं जा सरसराई ।
यह गुलाबी धूप ऊनी
उड़ रही हल्की रुई-सी,
किस तरह से है सिहरती
बर्फ के हाथों धुई-सी;
व्योम में उड़ता हुआ दिन
खो गया कैसे अचानक,
आग की इक बूंद-कण को
हैं खड़े पल मूक याचक;
कुछ नहीं जब हाथ में हो
बस बहुत है, एक पाई ।