पाला खाए पीले पात लिए
जमे हुए खड़े हैं
कोहरा ओढ़े पेड़
ठिठुरता पड़ा कहीं अकेला मैं
हो उठा ताज़ा-दम
मन-छ्त पर छितराई जैसे ही
गुनगुनी धूप-सी स्मृति तुम्हारी !
पाला खाए पीले पात लिए
जमे हुए खड़े हैं
कोहरा ओढ़े पेड़
ठिठुरता पड़ा कहीं अकेला मैं
हो उठा ताज़ा-दम
मन-छ्त पर छितराई जैसे ही
गुनगुनी धूप-सी स्मृति तुम्हारी !