वे जब कुछ लिख रहे होते हैं
लिखते-लिखते डर जाते हैं अचानक
उन्हें पता है दीवारों के कान होते हैं
दीवारों, दरवाज़ों, रोशनदानों से डरते हैं वे
वे डरते-डरते ही काम करते हैं
वे गुप्त के सरोकारों से अनुप्रेरित हैं
जो जानना चाह रहे होते हैं
उसे छुपकर ही जानना चाहते हैं
वे गुप्त बने रहकर
जायजा लेते हैं खुली चीज़ों का
वे सरल-सी बातों को
गूढ़ बना देना चाहते हैं
बार-बार मन करता है उनका
चले जाएँ दुर्गम कन्दराओं में
पर हमेशा मिलते हैं खुली बसाहटों में
वे गुप्त सुचनाओं का सँग्रह करते हैं
पढ़ते हैं गुप्त रहस्यों से भरी पुस्तकें
शरीक होते हैं गुप्त वार्ताओं में
गुप्त नामों से ही लोग उन्हें पहचानते हैं
स्वप्न, हँसी, दुख और अपने सरोकार
बड़ी चालाकी से छुपा लेते हैं वे
अकेलापन और अन्धकार
कभी परेशान नहीं करता उन्हें
गुप्त बने रहना
नहीं है उनकी पेशागत मजबूरी
वे लोभ और अज्ञान के चलते
अपने आप से ही ख़ुद को छुपाते हैं
जिस तरह मशगूल हैं आज अपने काम में
उन्हें तो यह भी याद नहीं
कि उन्होंने तो चुना ही नहीं था यह काम