गुमनाम पत्ते / देवेन्द्र कुमार

झर गए
गुमनाम पत्ते
झर गए

नदी पर्वत
साल सम्वत्‍ खाइयाँ
हो गया
छोटा सिमटकर आदमी
धूप पीकर
बढ़ गईं परछाइयाँ

किसी ने आकर कहा
वे घर गए

पहाड़ों के पार
रातों का किला
ढाल पर चढ़ते हुए
रुकते हुए
ढल गया
दिन का अपरिचित
सिलसिला

पाँव से सिर से उठे
अन्धड़ गए

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