नैन में हैं अश्रु गीले
राह में काँटे नुकीले
पांव में हैं जख़्म गहरे
छांव पाकर भी न ठहरे
लादकर काँधे पे अपने दर्द दुख सारे
चल पड़े अपनी डगर गुमनाम बंजारे।
दोष सारे सिर चढ़ाकर
भार चिन्ता का उठाकर
ओढ़कर अवसाद तन पर
वेदना के वसन मन पर
देह है जर्जर भटकते हैं थके हारे
चल पड़े अपनी डगर गुमनाम बंजारे।
होंठ पर ताले लगाकर
दाँत में उंगली दबाकर
पत्थरों से चोट खाये
घाव पर माटी लगाये
पार करके संकटों के सिंधु सब खारे
चल पड़े अपनी डगर गुमनाम बंजारे।
पीर को उर में सम्हाले
विघ्न के उपवीत डाले
लेपकर दुर्भाग्य चन्दन
चूमकर हर एक बन्धन
देखते हैं आसमां के टूटते तारे
चल पड़े अपनी डगर गुमनाम बंजारे।