दिन बहुत अच्छा गुज़ारा है मैंने
सूखे बर्तन और कपड़े अलमारियों में हैं
किताबों पर ज़रा धूल नहीं है
और उन्हें पढ़ने की फुर्सत भी नहीं
और इस अच्छे दिन में कहीं
मुझसे गुम गयी है एक कविता
मेरे जैसे लोग
गूंगे, आतंकित और दंभी
जो नहीं जानते बोलना और सोचना
किसी भी और भाषा में
जिनके पास
सबसे कम शब्द हैं
बस गिनी चुनी बातें ही
कहने को
उनसे भी कम हैं सुनने वाले लोग
आधी रात हाइवे पर पछाड़ खाती गाड़ियों को
नैसर्गिक षडयंत्रों का
हिस्सा मानते
सांताक्रूज से हर साढ़े तीन मिनट पर
टूटने वाले तारे को देख भावुक हो जाते हैं
शुक्रगुजार नहीं हैं किसी देवी देवता के
हम बहुत स्वार्थी और आत्मकेंद्रित लोग
प्रार्थनाओं में भी
गुम हुई कविता माँगते हैं।