निर्गुन है गुरु देवता, शिख सर्गुन सब कोय।
रहत सिखावत रैन दिन, धरनी देखु विलोय॥1॥
ब्रह्मा विष्णु महेश मुनि और चौबिस अवतार।
धरनी सो सब शिष्य है, गुरु सो अपरंपार॥2॥
गुरु तो ऐसा चाहिये, माग देय निबाहि।
धरनी निर्मल देह करि, कनक अग्नि जिमि डाहि॥3॥
धरनी सो गुरु धन्य है, जाते तपति बुझाय।
बिछुरा वालमु पाइये, लीजै हृदय लगाय॥4॥
धरनी सो गुरु गरु नहीं, माया को कर घाव।
भजन भेद जानै नहीं, फिरत पुजावै पाव॥5॥
धरनी गुरु के चरण पर, बार-बार बलि जाय।
अन्धाते डीठा कियो, शब्द औषधी लाय॥6॥
धरनी धरनी जो फिरै, बिनु गुरु नहीं लखाव।
बहुत नाम कहि 2 कहा, जो ततु नाम न पाव॥7॥
धरनी शिरपर राखिये, ताहि गुरु के पाव।
जो गुरु आतम रामसे, कर गहि करे मिलाव॥8॥
जीव दया जिसमें नहीं, जिह्वा बसैन न साँच।
काम कोक्ष साधो नहीं, धरनी सो गुरु काँच॥9॥
गुरु जो चाहत शिष्य कँह, खँचि लेत बिनु डोरि।
धरनी बीच परै नहीं, तरै अठासी कोरि॥10॥
धरनी सब जग आँधरो, जात नहीं मुख बोलि।
सोई डिठारो जानिये, पर्दा को दे खोल॥11॥
गुरु महिमा को कहि सकै, गुरु देवत को देव।
जो गुरु तत्व सनेहिया, धरनी सो गुरु सेव॥12॥
धरनी गुरु पूरा मिले, शिष्य सयाना होय।
पलमें पार उतारई, सरबर करै न कोय॥13॥
लरि 2 मरै कि जरि जरी, बूडि मरै किन खाट।
धरनी सो घर ना गयो, जेहि गुरु दियो न बाट॥14॥
हममें बैठा जो रहा, तामें बैठा हम्म।
धरनी गुरु-गम गम किया, नहि तो रहा अगम्म॥15॥