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गुलाबी अल्हड़ बचपन / सरस्वती माथुर

मैंने बचपन के सामान को
अपनी स्मृति के कोटर में डाल दिया है
ताला लगा कर समय का
चाबी को सँभाल लिया है
बचपन के घर आँगन की
हवाओं में बिखरी किलकारियों
गुलाबी रिश्तों की बिखरी बातों
दीवारों पर टँगी
बुज़ुर्गों की
तस्वीरों को
सतरंगी बीते दिनों को
बिखरी यादों के मौसम को
बचपन की धुरी के चारों ओर
चक्कर काटते माँ बाबूजी
भाई भावज और उपहार से मिले
अल्हड मीठे दिनों को
अमूल्य पुस्तक-सा सहेज लिया है
और संचित कर जीवन कोश में
इंद्रधनुषी सतरंगी चूनर में
बाँध दिया है
अब यह पोटली मेरी धरोहर है
जिसे मैं किसी से बाँट नही सकती
कभी भी बचपन की चीज़ों को
कबाड़ की चीज़ों की तरह
छाँट नहीं सकती क्योंकि
यह पूँजी है
मैरे विश्वास की
कृति है श्रम की
जहाँ सें मैं
आरंभ कर सकती हूँ
यात्रा मन की
गुलाबी बचपन की