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गुलाब / अहिल्या मिश्र

रात की स्याह चादर
दूर तक फैली धरती पर
अपने अनंत आवरण ढाप चुकी है।
दिन के उजाले में चहचहाते पंछी
निःशब्द आँखें बंद किए
भयभीत अपने घोंसलों में डैने समेटे बैठे हैं।

हिमश्लाका की श्वेत अभिसारिका
धरा की सरसराती हृदय स्पंदित करती
स्वर्ग परी-सी उतरती बढ़ी आ रही है।

कल-कल, छल-छल, विमल-विमल
प्रेरक गीत गाती पल-पल, चल-चल
डर कर, छुप कर, थक कर उन्मत्त हो चली है।

अंधेरों में आर्त्तनादी अट्टहास करने आतुर,
रात विद्रूप बाला-सी अंधाधुंध भागती जा रही है।
गुलाब का मधुर मंजुल मुखड़ा भी
ज्योतिहीनता का शिकार हो
कलुषित कालिमा ओढ़ लिया है।

जंगल के बाद उस चौराहे से आगे
हिंसकों के बंद पलकों के नितांत एकांत से
विधवा मांगों की तरह एक पेड़िया सूने पड़े हैं।

गाँव की चौपाल की चहल-पहल
श्याम वर्ण, श्याम वश, श्याम संग
रेगिस्तानी सन्नाटा ओढ़े खड़ी है।

किंतु शहर के सुसंस्कृत गृहों में
चकाचौंध के बीच चुहलबाजियों का
नग्न नर्तन जवान हो रहा है
वहाँ बेचारा अंधा अंधेरा
सभ्यता के दामन में
मुँह छिपाए रो रहा है।
बहुत ही प्रभावहीन बेचारगी
सी अवशता के गीत गा रहा है

दूसरी ओर नेयोन ट्यूब के
प्रखर प्रकाश / उजास
तथा रंग बिरंगी उजालों में
गहन गलबहियों के बीच
गुलाबों का लेनदेन
गुलाबी गालों से हो रहा है।

गुलाब / कली / फूल / पराग / डंठल
इस तरह
गुलाब युक्त
महि का आलिंगन
नयी संस्कृति से हो रहा है।