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गूंगी भूमिकाओं में... / योगेन्द्र दत्त शर्मा

घोल, मौसम की शिराओं में
हरापन घोल!

मंच की कंठस्थ गूंगी
भूमिकाओं में
भर सके, तो आग भर
ठंडी हवाओं में

ऊंघते नेपथ्य की आंखें
जरा तो खोल!

ले रहा जमुहाइयां
हर ओर सन्नाटा
एक वहशी यातना का
चुभ रहा कांटा

देर से बदला नहीं
इतिहास का भूगोल!

पर्वतों की देह पर
शिकनें खिंचीं गहरी
थरथराती बस्तियों में
हिमनदी ठहरी

है प्रतीक्षा में, किसी
अक्षांश पर भू-डोल!