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गृहविज्ञान / सुन्दरचन्द ठाकुर

वे कौन सी तब्दीलियाँ थीं परम्पराओं में
कैसी थीं वे जरूरतें
सभ्यता के पास कोई पुख़्ता जवाब नहीं
गृहविज्ञान आखिर पाठ्यक्रम में क्यों शामिल हुआ।

ऐसा कौन सा था घर का विज्ञान
जिसे घर से बाहर सीखना था लड़कियों को
उन्हें अपनी माँओं के पीछे-पीछे ही जाना था
अपने पिताओं या उन जैसों की सेवा करनी थी
आँगन में तुलसी का फिर वही पुराना पौधा उगाना था
उन्हीं मँगल बृहस्पतिशुक्र और शनिवारों के व्रत रखने थे
उसी तरह उन्हें पालने थे बच्चे
और बुढापा भी उनका लगभग वैसा ही गुज़रना था।

सत्रह -अठारह साल की चँचल लड़कियाँ
गृहविज्ञान की कक्षाओं में व्यँजन पकाती हैं
बुनाई-कढ़ाई के नए-नए डिज़ाइन सीखती हैं
जैसे उन्हें यक़ीन हो
उनके जीवन में वक़्त की एक नीली नदी उतरेगी
उनका सीखा सब-कुछ कभी काम आएगा बाद में।
वे तितलियों के रंग के बनायेंगी फ्रॉक
तितलियाँ वे फ्रॉक पहन उड़ जायेंगी
वे अपने रणबाँकुरों के लिए बुनेंगी स्वेटर दस्ताने
रणबाँकुरे अनजाने शहरों में घोंसले जमायेंगे
वे गंध और स्वाद से महकेंगी
आग और धुआँ उनका रंग सोख लेंगे
कहीं होंगे शायद उनकी रुचि के बैठकख़ाने
रंगीन परदों और डिजाइनदार मेज़पोशों से सजे हुए
कितनी थका टूटन और उदासी होगी वहाँ।

सराहनाओं के निर्जन टापू पर
वे निर्वासित कर दी जायेंगी
यथार्थ के दलदल में डूब जाएगा उनका गृहविज्ञान।