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गेना-नगर खण्ड / गेना / अमरेन्द्र

‘‘रेशम-सी चिकनी हैं, क्या सड़कंे, गलियाँ तक
फूलों का क्या कहना टांय-टांय है कलियाँ तक
मीना बाजारों-से चैराहे सजे-धजे
पारा ही चमक रहाµऐसा ही नगर लगे
नभ को हंै छूती-सी ऊँची हवेलियाँ
सज्जा में ऐसी; ज्यों; दुल्हन नवेलियाँ
रोशनी की लुटिया हैं लटक रही ठाम-ठाम
कौन है, लगाए जो इन सबका असली दाम
लगता है टूट कर ज्यों नभ ही है गिरा हुआ
तारों से इसीलिए शहर भी है भरा हुआ
लट्टू ये बिजली के लघु-लघु झकझक-से
रात के अन्धेरे में जुगनू ज्यों भकभक-से

टमटम है, रिक्सा है रेलों का रेला भी
सिनमा है, थेटर है, जादू का खेला भी
स्वर्ग की भी परियों से सुन्दर ये मौगी हैं
पीछे में लगे, बिना जट्टों के, योगी हैं

कैसे लहराए सब बालों को निकले हैं
जिनको जवानी ना, वे भी क्या मचले हैं’’
देख कर ये गेना कुछ ओझराया, शरमाया
‘‘औरत पगलाई क्या ? कैसा यह युग आया ।

पंक्ति में सजी हुईं सौ-सौ दुकान ही न
साहू और सेठों के ऊँचे मकान ही न
ठाम-ठाम शीशे के बक्से मंें मूरत हैं
सच से भी सुन्दर जो, ऐसी, ही सूरत हैं
 
एक ही दुकान में है भीड़ कैसी; मेला ज्यों
संक्रान्ति अवसर में बौंसी का खेला ज्यों
लोगों के रेला का अंत कहाँ जाता है
गेना अकेला पर अपने को पाता है

कोसों से तेज-तेज चल कर वह आया है
माथे पर बोझ बड़ा भारी उठाया है
एक-एक नस काया की बाहर से दिखती है
पैर थरथराते हैं, देह नहीं टिकती है
चूते पसीने है जैसे कि वर्षा-कण
धूलों से देह सनी जाती है हर पल क्षण
धौकनीं-सी साँस चले, मुँह तमतमाया है
कोसों से तेज-तेज चल कर वह आया है
सामने ही बृजवासी सेठ की दूकान में
रखना है नीचे कुछ, ऊपर दालान में

रख कर के रुपये ले चला, तन है चूर-चूर
पैर जहाँ गिरते हैं, मन उससे दूर-दूर
खोली में आ कर वह गिरा चित्त बेसुध हो
गिरती है डाल कोई वृक्ष से ही कट कर जों
देह तक डुलाने की शक्ति न बची हुई
जैसे थी गिरी देह, वैसे है गिरी हुई
खोली में गेना है और बस अंधेरा है
रात गड़े आँखों को, देह को त्यों बोरा है

चाहता प्रकाश करे लेकिन तन चूर-चूर
मन करता उठने को समरथ-देह दूर-दूर
थका मन है, थकी देह, भूखा अटट्ट है
गेना तो चित्त गिरा, इच्छा पर पट्ट है

ऐसे ही थका रोज गिरता वह खोली में
जैसा कि और कोई उसकी ही टोली में

टोली के लोगों को देख कर हहरता है
बेढंग व्यवस्था पर मन-मन कुहरता है
सोचता, समझता है, जानता और गुनता है
अपने दुर्भाग्यों पर सर अपना धुनता है
‘‘झूठा ही नारा-प्रचार सभी करते हैं
अपने और स्वजन हित लोग यहाँ मरते हैं

नारा गरीबी का, सौदा अमीरी का
खूब है यह शासन तो बस जी हुजूरी का

किसको है मतलब गरीबों की बातों से
पैसा कमाना है लातों से, जातों से
बलियों को पैसा है, पदवी, मनोरंजन है
दीनों के हिस्से में आया दुरगंजन है
टाका है जिनको, लड़ाते हैं लोगों को
बुनते हैं मन में वे कितने ही रोगों को

भुक्खड़ करे तो क्या, लालच में बिकते हैं
जो-जो सिखाते वे, सब कुछ ये सिखते हैं
नारा दिलवाओ, गिरवाओ मत मनचाहा
धन से खरीदो सब दीनों को; है थाहा

कल जो ये दीन-हीन धनपति-सा ही होंगे
मनबिच्छा राजा को गद्दी क्या न देंगे

गद्दी बचाने को राजा यह जानता
टाका, गरीबी और जातों को मानता
जातों में बाँट बाँट सब ही मनुक्ख को
राजा ने बाँटा है अपने में सुक्ख को

इधर सभी जातों के फेरे में ओझराए
मुट्ठी भर दाने को कैसे हैं टौव्वाए
किसको समझाएँ क्या, कोई क्या समझेगा
ऐसा बौराया है, कुछ भी क्या मानेगा
राजा तो सुख से रहेगा, और रहता है
सहना जो गण को है, वह सब कुछ सहता है
सहता है ऐसे ही ? अपनी करतूत से
यह जो टौव्वाता हैµअगड़ी-अछूत से

जी भर प्रचार करोµअगड़ी-अछूत का
मानव की बस्ती में मानव के भूत का
पत्थर को पूजते और नफरत मनुक्ख से
देवता की छाती भी फट जाए दुक्ख से

पूजा में, प्रीति में, स्नेह और भक्ति में
दीनों को ऊपर उठानें की शक्ति में
शांति है, जीवन है, पापों से मुक्ति है
सुख से तो रहने को यही एक युक्ति है

लोग नहीं मानते हैं, लड़ते हैं, क्या करना
जलते हैं जान के ही, जलने दो, क्या पड़ना
लेकिन यह जाना है, यह तो एक आग है
चन्दा के मुँह पर यह काला-सा दाग है
मिल कर यह रहने न देगा मनुक्ख को
सुख का ही रक्त जब पिलाता है दुक्ख को
और जब तलक यह दुख रहता है, जाहिर है
बिकते रहेंगे सब, राजा तो माहिर है

थोड़े-से सुख खातिर जीवन के दुक्खों को
जोड़ते हैं और फिर गँवाते हैं सुक्खों को
किसको समझाए कौन, कोई क्या समझेगा !
ऐसा बौराया है, कुछ भी क्या मानेगा !
जाति के नाम या कि धर्मों के नाम पर
हीरा क्या मिलता है कौड़ी के दाम पर ?

लड़ने को लड़ना है दीनता से, लड़े नहीं
अच्छे सुमार्ग पर ही बढ़ना है; बढ़े नहीं
लड़ना तो चाहिए मनुष्यों के दुश्मन से
लड़ते हैं कोयरी से, कायथ और बाभण से

कोई हो जातिµवहाँ पापी तो होता है
उसके संग कोई क्यों जात को ही ढोता है
यह तो षडयंत्रा है बस आदमी के शत्राु का
भूल से समझना मत खेल किसी बुतरु का
जो भी न चाहता है आदमी के सुक्खों को
जाति के नाम ही लड़ता मनुक्खों को

कुछ भी तो मुझको समझ में न आता है
जाति में आखिर क्या किसको दिखाता है
यहीं कभी बसते थे राम, कृष्ण, व्यास भी
गौतम थे, बाल्मीकि, संत रैदास भी
जाति के कारण ही क्या ये महान थे ?
या कि इस कारण, ये ज्ञानी, गुणवान थे ?

जाति की ताकत पर कौन खड़ा रह पाया
व्यास ने है भारत में क्यों आखिर बतलाया
कर्म ही बनता है वर्ण भी मनुष्य का
भूलना इस बात को ही मूल बना दुक्ख का

च्छे मनुष्यों को दुनिया ही खोजती
शिव हो कि केशव-कृष्ण, सबको है पूजती

क्यों न असुर शंुभ भी घर-घर पुजाता है
नर को समझने में क्यों न यह आता है
खुद को न चेत अगर, लोग तो लड़ायेंगे
ऊँच-नीच का पाठ क्यों न पढ़ायेंगे
लड़ें, तो मुझको क्या, लेकिन इस लड़ने से
राकस के रस्ते पर जान कर ही बढ़ने से
होगा क्या ? झगड़े में लोगों का नाश होगा
धरती पर भूत और पिचासों का वास होगा
लोगों की होगी बस बीती कहानी-सी
जैसे बुझव्वल हो, एकदम पिहानी-सी

घर में ही बाघ और बानर का वास होगा
मन्दिर में देव नहीं, राकस का रास होगा
होगा तो मुझको क्या ? मेरा कौन मानता
काहे को ऊँच-नीच मन में है ध्यानता
ध्याने, तो मुझको क्या ? लेकिन इस ध्याने से
लोगों का लोगों में भेदभाव माने से
लड़ते रहंेंगे सब और फिर गरीबी यह
जायेगी अभी नहीं निश्चित है, भावी यह

राजा तो चाहे ही, लड़े कोई बात लिए
धर्मों को मुँह पर और माथे में जात लिए

उस ओर राजा का छक्का है छक्के पर
रुपये हसोत रहा थक्का भर, थक्के पर
घूमता आकाश में है, वायु से बात करे
रुपये की ताकत पर दिन को भी रात करे
क्षण में ही सागर के पार, तुरत दिल्ली में
मुझ जैसा ठुका नहीं बाँसों की किल्ली में
बगुले-सा कपड़े में टोपी सुहाती है
उनके पसीने से चन्दन-बू आती है
आए जो वह, तो क्या हद-हद की भीड़ जुटे
देखने में जिस-तिस के हाथ, मुँह, गोड़ टूटे

देवों के दर्शन में ऐसी न भीड़ जुटे
नभ में ज्यों टिहड़ी-दल; वैसा ही दल में टूटे

राजा को इस सबसे मतलब क्या, भाषण दे
धरती के ऊपर ही हाथ और पाँव रखे
किसको न मालूम हैµयह सब बस रुपये को
हाय-हाय करते क्यों, देश लिए ? पैसे को
भरना ही चाहे तिजोरी और घर में वह
छप्पर में, ठारी में, मिट्टी के तर में वह
सोचो तो इसमें पुरोहित का भाव कहाँ
किसके हित छोड़ता है थोड़ा भी दाव कहाँ
सब ही समेटने में वह तो बस लगा हुआ
लोकतंत्रा है लेकिन राजतंत्रा जगा हुआ

किसको है ताकत कि राजा को रोक ले
भूल से भी अनचोके कहीं कभी टोक ले
आपस में लड़वैया राजा को रोके क्या
स्वयं ही झोंकाया है, दुश्मन को झोके क्या
 
किसकी सराहना हो, किसको क्या बोला जाय
अपना मुँह काला, तो पर को क्या दूषा जाय
जब तक कि आदमी का दिल न साथ होता है
मन को ही, मन कोई निकट से न छूता है
तब तक गरीबी मिटाने की बात क्या ?
पहुना दलिद्दर से मुक्ति का उपाय क्या ?
शोषण-व्यवस्था, गरीबी मिटाने को
लोगों को होगा ही लोग सब जुटाने को
तब ही कुछ काम यहाँ हो सकता सुख का है
न तो फिर होगा ही अन्धड़ यह दुख का है

न करता राजा, पर चाहिए क्या ? क्षेम करे
सारी प्रजाओं से एक जैसा प्रेम करे
राजा तो राजा है, प्रजा में ही भेद क्या
चलनी में छेद भले; घैले में छेद क्या ?

ज्ञानी जो राजा है, अच्छाई गुनता है
अपनी प्रजा को वह देवता समझता है
पर ऐसे राजा का अब तो है लोप हुआ
क्योंकि हर कोई अब पंडित और पोप हुआ
देखता हूँ, सब ही अधर्मों में हेलते
मिट्टी को हपक रहे, पापों से खेलते

पाप ही तो है कि यहाँ धर्मों के नाम पर
लड़ते, लड़ाते हैं लोगों को दुनिया भर
माटी में देश मिले, गाँव मिले, लोग मिले
लोगों का लोगों से पुश्तैनी प्रेम हिले
ऐसे इस धर्म से तो अच्छा अधर्म है
होऊँ विधर्मी ही; बोलो, ‘बेशर्म है’
धर्म-ध्वज ऐसा जो देश-दोस्त बाँटता हो
रक्त के संबंधों को झाड़ू से झाँटता हो
इससे भी बढ़ कर के और पाप क्या होगा
ऐसा ही धर्मµशाप; और शाप क्या होगा
 
खूब अजब लोग हैं ये समझे न बूझे हैं
धर्मांे के नाम पर अधर्म इन्हें सूझे हैं
किसलिए यह ? हासिल क्या ? रुपया-सिंहासन न
ज्यादा से ज्यादा इन्द्रासन का शासन न

अमृत की कौन यहाँ धार पी के आया है
ब्रह्मा की किस्मत को कौन बांध लाया है
दो दिन का तामझाम, फिर तो फगदोल है
फिर तो धघकता ही काया का खोल है
कौन फिर हमारा है ? और क्या बचेगा फिर
सम्पत, क्या इन्द्रासन साथ यहाँ होगा फिर
पदवी ? प्रतिष्ठा ? क्या कंचन-सी काया यह
जात-पात, धरम-वरण, धरती की माया यह

मिट्टी, आकाश, हवा और बनी आगिन की
किस्मत क्या देह की हैµएकदम अभागिन की

तब भी तो तय है, इस देह का तो मोल है
कितना भी आगिन का, पानी का खोल है
मिट्टी की देह से तो कटना भी मुश्किल है
हंसा-कुहंसा सब इसमें ही शामिल है
देह नहीं होगी, तो ऊँचे विचार कहाँ
देवता और दुखियों का, किसका उपकार कहाँ ?
हंसा को साधना, तो इसको भी जोगना है
जो कुछ भी भोगे यह, वह सब तो भोगना है
 
लेकिन हो सीमा में सब कुछ, तो ठीक है
गाड़ी के चलने की बनी हुई लीक है
लेकिन कौन हाँक रहा ? हाही के मरे हुए
साँसों की धौकनी से हंसा तक जले हुए

इससे ही दुनिया में ऐसी है हांय-हांय
पश्चिम से लेकर है पूरब तक कांय-कांय
 
ऐसे इस लक्षण से दुनिया क्या सुधरे
पेटों की दौड़ में तो पेट दीन के भभरे ?

एक की तो देह सूख करची-सी बनी हुई
दूसरे की काया है बेलुन-सी तनी हुई
देवता का मार्ग क्या दिखाए, जब देह नहीं
हरियाए धरती क्या; नभ में ही मेह नहीं

भाषण ये राजा के सुन्दर हंै, अति सुन्दर
धरती पर रख देगा सुख सारे और इन्दर
झूठ है यह; भरा पेट, इसी से यह बोलता
आसन पर साँप-सा ही अंग-अंग डोलता
भू पर बसेगा क्या स्वर्ग, सभी जानते हैं
जबसे ये जन्मे हैं तब से ही कानते हैं

जिसको जरूरत है जितनी सी वह तो मिले
जो न खिल पाए हैं फूल पहले वह तो खिले
धरती पर स्वर्ग को उतरना है, उतरेगा
कल्पतरु-सुख को विचरना है, विचरेगा

इसमें बस राजा को पहले सुधरना है
ऊँचे पेट काट कर खलिये को मरना है
और फिर जरूरत है लोगों की शिक्षा की
परहित, संतोष जैसे भावों की दीक्षा की
उसको बताना है, भूतों को जोड़ने में
स्वर्ग कहीं रखा है क्या, माथे को फोड़ने में

माटी के तन का क्या इतना भी ताम-झाम
एक दिन तो होना है अर्थी पर राम-राम
जलती चिता से इस मिट्टी को मिलना है
जितना मजबूत करो, पाया यह हिलना है
इसके लिए इतना सोना जुटाना क्या
कड़कड़िया रौदा में इतना टटाना क्या

काया हित उतना ही; हंसा हित जोड़ना है
हाही की जब्बड़ इन भीतों को तोड़ना है
जोड़ना क्या जाति के नामों पर, धर्मों पर
आखिर क्यों कूदे हम कुत्ता के कर्मों पर ?

जाने, अब वे दिन कब लौटेंगे देश में
एक से दिखेंगे सब, एक से ही भेष में
एक जैसे बोलेंगे मिसरी की बोली में
मन मोहे नयकी दुल्हनियाँ ज्यों डोली में
और सभी लोगों की एक ही बस होगी जात
जाने कब होगा सुनहला-सा ऐसा प्रात
कब दिन वे आयेंगे, नीच कर्म छोड़ कर
जात-पात, ऊँच-नीच भेद-भाव तोड़ कर
स्वजन-से होंगे सब अपने इस देश में
एक से दिखेंगे सब, एक-से ही भेष में

रूप-रंग सबके ही अलग-अलग होंगे, पर
मन के तो रूप-रंग अलग नहीं होंगे, पर
रोए जो कोई, तो नैनों में सबके लोर
घोरतम अंधेरे में कब होगा ऐसा भोर ?
फिर से चैपाल जमे जाने कब द्वार पर
बिरजू के आँगन में, रमजू-खमार पर
मिसिरा का, मंडल का, दत्ता दा होंगे साथ
दुनिया भर लोगों की दुनिया भर होगी बात
सरयू सिंह यादव का विरहा वह, चैता वह
फिर से क्या गायेंगे, मन से ही, वैसा वह
रानी सुरंगा का, कमला का गीत वह
मरे हुए बाला से बिहुला की प्रीत वह
राजा सलहेस का वह सपनाµजो मैया का
सुनते ही मथ जाता मन था सुनवैया का
जाने तो वे दिन कब लौटेंगे देश में
मँगरू दा मोहेंगे भर्तृहरि के भेष में

पूजा और पर्वों में मिलेंगे सब अपने से
मानेंगे सबको सब, भाव जैसे पहुने-से

काली-दशहरा में नाटक वह राणा का
मंच पर वो अभिनय क्या केशरिया बाना का
बाबू कुँवर की वह देश-हित में कुरबानी
झन-झन-झन झाँसी-अकेली वह मर्दानी
और वह कौशल्या का रोदन निज राजा हित
राम का वह राजपाट सब कुछ ही प्रजा हित
रावण के शासन में सीता का साहस वह
लक्ष्मण की मूर्छा पर राम जी को ढाढ़स वह
नाटक क्या नाटक-से लगते थे, सब सच्चे
दशरथ के बच्चे भी रोते, तो बस बच्चे

अब वैसी बात कहाँ ! सब का ही साथ कहाँ
अच्छे सत्कर्मों में दस के हों हाथ; कहाँ
कहाँ रही मस्ती वह ! कहाँ रहा धूमधाम
कहाँ रामलीला में भीगते हैं सीताराम

कहाँ रहा, होली के रंगों का छर्र-छर्र
गिरता पिचकारी से दूध-सा ही गर्र-गर्र
बदल जाते देहरियों-द्वारों के रंग-रूप
रंग गिरते; जैसे कि नभ से गुलाबी धूप
मिरबा का, मण्टू दा, मटरू दा, चैरासी
लछमनिया, लपकी बहुरिया का नन्दोसी
पचकौड़ी (पोता पुरहैत का) और ढोढ़ी दा
छोड़े किसी को न; कहने पर ‘छोड़ी दा’
और उधर सब्बड़ कनियैन भी बुलाकी की
सामने में ठठता क्या कोई मरदाना भी
रुपसा, बरमपुर और डाँड़े, झपनिया की
आँखों में नाचती है होली दुलहनिया की
उड़ते अबीर-मेघ, रंग क्या बरसते थे
भींगते थे एक साथ; भींगने तरसते थे
क्या गोरा, क्या गेहुआँ; रंग और अबीर से
लगते कन्हैया-से अपने शरीर से
वैसे दिन जाने कब आयेंगे देश में
एक से दिखेंगे सब एक से ही भेष में

आयेंगे निश्चय ही, बाकी कुछ देर है
आया न सुख है, तो कर्माें का फेर है
धरती का बेटा, न अभी भी है जगा हुआ
किस्मत मंें फेरा शनिच्चर का लगा हुआ
फेरा यह टूटेगा, मानव को जागना है
चन्द्रग्रहण कितने दिन, राहू को भागना है
भूल सभी भेद-भाव भेटेंगे आदर से
पूजा के योग्य जान मुझ-सा भी कादर से
सुग्गे-से मीठे बोल बोलेंगे आपस में
अन्तर को जाना है मानव और राकस में

एक-से ही सोचेंगे, एक-से व्यवहार-बात
प्रेम ही बस धर्म होगा, नर होगा एक जात
घूम के फिर आयेंगे बीते दिन देश मंें
एक-से दिखेंगे सब, एक से ही भेष में

खूब फूले, झूमे, गाए, लोग मेरे गाँव के
गाँव को सुन्दर बनाए, लोग मेरे गाँव के
बोल कोयल के डरे-से गूंजते अमराइयों में
राग पंचम अब सुनाए, लोग मेरे गाँव के
बीजू वन में रूठ के अब जा बसी है शांति जो
दूत लाने को पठाए, लोग मेरे गाँव के
पीर-पंडित, ऋषि-मुनि ने जो बताई थी हमें
बात वह भूली बताए, लोग मेेरे गाँव के
दिल में उमड़े प्यार की गंगा नदी, सिंघु नदी
तान कुछ ऐसी सुनाए, लोग मेरे गाँव के

लीक से बेलीक हो चलते रहे जो, अब रुके
बुद्ध बनना है कि अंगुलीमाल तक भी आ झुके
रास्ता बाकी बहुत है, अनवरत चलना यहाँ
राह में ऐसे झगड़ना शोभता किसको कहाँ
बात यह सबको बताए, लोग मेरे गाँव के
खूब फूले, झूमे, गाएं, लोग मेरे गाँव के

लूट, हिंसा, द्वेष की पूंजी पे हम हैं कब टिके
हम नहीं हैं वे कि जो पापों के धन पर हैं बिके
खून में मेरे घुले हैं राम-राणा-रक्त ही
देख विपदाएँ क्या हहरे हैं कहो पूर्वज कभी
तो कहो कैसे मैं हहरूँ पाप के अन्याय से
क्या कभी प्रह्लाद जलते होलिका की हाय से
मानता कि देश में फिर से दुशासन जोर है
द्रोपदी की आँख में डबडब लबालब लोर है
कुंभकर्णों के बलों पर हाँक देता दशमुँहाँ
देश के पर राम-कान्हा भी तो संकल्पित यहाँ
रास्ता हमको बनाना है वनों के बीच से
जो मिले, तो क्यों डरें हम बाघ ही से, रीछ से
फिर प्रजाओं से मिलेेंगे भूप भिक्षुक-भेष में
रास तो रचना ही फिर सें इस समूचे देश में
सीख संतों की सिखाए, लोग मेरे गाँव के
खूब फूले, झूमे, गाएं, लोग मेरे गाँव के ।’’

देख रहा सुन्दर-सा सपना और हँसता
घोरतम अन्धेरे में गेना मन रसता ।