जल से भरे-भरे मेघों की नभ में है बारात
सूर्य देव हैं ऐसे गायब, दिवस लगे; ज्यों, रात
बादल हैं या काले-काले राकस करते खेल
बिजुली नहीं, ये दाँत उन्हीं राकस के; मिलते मेल
काले बादलµमध्य दामिनी, दोनों ऐसे लगते
ज्यों सिलेट पर टेढ़ी रेखा; चित्रा हू-ब-हू बनते
कभी झटकवा और कभी तो बूंदा-बांदी-खेल
देखा कभी न, ऐसा है यह धरती-नभ का मेल
ज्यों मशाल बिजली की जलती; ठनका-तुरही साथ
बूंदा-बूंदी, अन्धड़-पानी; जैसे, हों बारात
आज गगन शिव जैसा लगता; जटा ज्यों बिखरे हों
ज्यों प्रसून लावा; धरती के खोंचे पर पसरे हों
पिता बना-सा मेघ, हो करता पहला कन्यादान
भींग रहे हैं स्नेह-लोर से बेटी के हैं प्राण
हू-हू हवा चली है ऐसी, वृक्ष डुलाए-झाड़े
उसको भी, जो अपनी जड़ है भीतर तल में गाड़े
पछिया के झोंके से लम्बे वृक्ष हिले हैं ऐसे
नशा चढ़ाए आरी-बारी लोग झूमते जैसे
भाव उतरने पर जैसा कि भगत बनाता चाल
लम्बे वृक्षों का वैसा ही अब तो लगता हाल
पछुवा-पुरवा चले वेग से; वृक्ष हुए हलकान
क्रोध उतारे उन पर गिन-गिन जो बेबस बेजान
रहा बरसता बहुत देर तक, तब ठहरा जा मेघ
धरती पर पानी-ही-पानी, कहीं मिले न थेग
सर-सर, छप-छप, पानी की अब बढ़ी हुई है धार
उभ-चुभ जिसमें छोटे तरुगण, डूबे खेत-पतार
डाली बीच छिपे और भीगे झाड़े डैने काग
फुदुक-फुदुक कर देने लग गये काँव-काँव की डाक
क्या कहते हंै ? वर्षा रुकने का ही कहे संदेश ?
या विरहिन को सुख देते हंै, जिसका पिया विदेश
पंख खुजाते चोचों से हैं रुक-रुक ठहर-ठहर कर
और उड़ाए पंखों पर जो बूंदे पड़ी थीं ऊपर
पत्तों पर पत्ते से टप-टप बूंदंे ऐसे चूए
रुक-रुक कला उतरने की ही सीखे, फिर बढ़ जाए
वृक्ष लगे; ज्यों, मल-मल कर हैं अभी नहाये-से
बून्द लगे; ज्यों, चूती हैं बस भीगे बालों से
वर्षा थमी हुई है लेकिन बिजली चमक रही
बाहर होने से डरता है गेना का भी जी
गेना ने ओसारे पर सें आँगन ओर निहारा
आँखें भर्र आइं उसकी; था इतना विवश बेचारा
पोखर बना हुआ है आंगन, देहरी धँसी हुई है
परछत्ती तर भीत बनी तक टूटी, गिरी हुई है
कुछ खर ही हैं बचे हुए छप्पर पर, कहीं-कहीं पर
चूने से पानी के फोकें होते वहीं-वहीं पर
आँगन के दोनों छोरों की देहरी; नदी के छोर
तड़प उठा गेना; ज्यों, उसको बेंत लगी पुरजोर
आँसू आँखों से छलके गालों पर आके ठहरे
मृत्यु से लड़ते-लड़ते ज्यों गेना का जी हहरे
बाहर बारिश रुकी हुई है, बिजली भी है बन्द
तेज हवा की गति भी अब है हल्की-हल्की, मन्द
लेकिन गेना की आँखों की बारिश कहाँ थमी है
मन में दुख की तेज हवा झोंके ले खूब बही है
फटी हुई छाती बेकल है; भसकी भीत निरख कर
बस खर ही कुछ शेष बचे हैं, खुला हुआ है छप्पर
पट-पट करने को हो आये उसके दोनों ठोर
टप-टप गेना की आँखों से चूने लगे हैं लोर
बैठ गया आँखें मूंदे वह माथे पर ले हाथ
गेना कुछ भी समझ न पाता है विधि की कुछ बात
जो गरीब हैं उन पर ही क्यों ऐसा जुलुम ढहाता
जिसकी आँखें चुवे, भला क्यों छप्पर वहीं चुआता ?
कुछ तो नहीं बिगाड़ा है देवों का इसने हाय
अपने जीवन को वह खाता, जीवन उसको खाय
किसको सुख का दिन कहते हैं और चैन की रात
मैं तो इतना ही जाँनू, जो बस दुख की है बात
दुख ही साथी, दुख ही बाबू, विपदा मेरी माय
दुख ही आगे-पीछे डोले, दुख ही एक सहाय
जाने कब देखूँगा आँखों से मैं सुख के दिन
जीवन तो मेरा ऐसा हैµगड़ी हुई ज्यों ‘पिन’
रात प्रलय-सी, दिन भी तो बस मेरे लिए कभात
रह-रह के गूरे-सी टहके यह गरीब की जात
छटपट-छटपट करते गुजरे, भले जगे या सोय,
जैसे, जले चिता जलती पर जिन्दा ही हो कोय
कहते लोग हैं जिसका कुछ न, उसका है भगवान
कहाँ छिपा है इस वेला में, क्यों न लेता ध्यान
पण्डा जी कहते हैं यह तो इन्दर जब गुस्साया
वृन्दावन में पानी-ही-पानी जा के लहराया
व्याकुल होने लगे सभी, सब बूढ़े, बाल, जनानी
गोवर्धन ले लिया अंगुली पर, रोक लिया था पानी
आते क्यों न इस वेला में, मैं भी तो संकट में
क्या भगवान बड़ों को ही सहयोगे सब आफत में
जो भगवान बड़ों का ही है, तो गरीब का कौन
यह पहाड़-सा जीवन मेरा, और उधर है मौन
पूछे ही क्यों, बतलाऊँ क्या, मन की व्यथा अपार!
दीन-हीन का जीवन है साहू से लिया उधार’’
जैसे, बर्फ गले; चिन्ता में, गेना का मन वैसे
उधर गगन में मेघ खत्म भी होते जाते जैसे
निकल-निकल कर सूरज से बाहर आती है धूप
सोना लिए परोसे जैसे अपने कर से सूप
चमक उठे सब एक बार ही जो-जो जहाँ-जहाँ पर
उन्हें देखने आँखें आखिर रुकतीं कहाँ-कहाँ पर
जल पर किरणों की पतली रेखाएँ पड़ी हुई हैं
साड़ी पर ज्यों कनक रश्मियाँ सुन्दर जड़ी हुई हैं
पानी में बगुले की पंक्ति मोहक बहुत सुहाय
उपलाये हों शंख सलिल पर, ऐसा यही बुझाय
रेशम की चिकनी साड़ी-सी हवा देह को छूती
कोई पनिहारिन टकराई, ऐसा ही भरमाती
लगे गुदगुदी छूने से; ज्यों; ठीक उसी-सी लगती
लजवन्ती दुलहिन के पहले परस से मिलती-जुलती
ऊँचे-नीचे बांधों में पानी का वेग चला है
ज्यों, बनिहारिन का बालक ही खेत बीच मचला है
गूंज रहा पानी का सर-सर दूर-दूर तक ऐसे
गीत ब्याह के गीतारिन के दूर गाँव में जैसे
ढीबा, सुगिया, मंटू के बच्चे पानी में उछले
मैदानों के पानी में वे जान-बूझ कर फिसले
रोमांचित करनेवाली पुरबा के लगते हाथ
निकल पड़े बाहर बूढ़े भी उन बच्चों के साथ
आँगन के पानी को गेना इधर हाथ से उपछे
भीत भसकने के कारण नाली की माटी खपचे
हुये जा रहे सरगद हैं गेना के देह और हाथ
क्या उलीचते पानी को ? या घाम है ? अनबुझ बात
धौने झुके, कमर ऐंठी सी, पूरी देह के जोड़
कितने देते साथ भला गेना के दुखते गोड़
आखिर थक कर बैठ गया उस जगह, हुआ-सा चूर
‘बालम बिन बरखा न आवै’ कोई गाए दूर ।