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गेना-विपद खंड / गेना / अमरेन्द्र

धरती पर है कौन कवि, और साहस किसके पास
बहुत कठिन है सब ही लिखना गेना का इतिहास
क्या है गिनना सबसे संभव चन्दन नदी के बालू
गेना का दुःख कहने से पहले सटता है तालू
कलम उठाते रो पड़ता है पापहरणी का पानी
और दरकती धरती सुन कर उसकी करुण कहानी
हुहआने लगती है दुख से उधर हवा उनचास
कपस-कपस कर रोने लगता धरती संग आकाश
गेना का दुख ऐसा ही है, सुनकर धैर्य बिखरता
माँ की छाती फटी अगर, तो क्या, मंदार भी फटता
सृष्टि बहुत खोई-सी लगती, चेहरा करुण उदास
बहुत कठिन है सब ही लिखना गेना का इतिहास
बीस साल का होते ही गेना ऐसा ओझराया
सूता भी न ओझराए यूँ; क्या जीवन यह पाया
पार नहीं इक्कीस हुआ कि लुटे सभी सुख-मौज
गेना के जीवन के गढ़ को तोड़े दुख की फौज
जेठ माह का मध्य दिवस था, जंगल बीच में था वह
लिया बाघ ने लपक पिता को, वह था दृश्य भयावह
गेना के कानों में गूँजे माँ-बाबू का शोर
गेना के जीवन में आया कष्ट बना-सा चोर
दुख आते ही रहे लगा कर जगह-जगह में सेंध
खेले सब दुख गेना को ही बना-बना कर गेंद
पिता-मृत्यु के साथ जननी की हालत बहुत विचित्रा
दीवारों पर लगे देर तक गढ़ा हुआ-सा चित्रा
कभी बोलती ‘‘दौड़ो बेटा, बाघ उतर आया है
जाओ बीजूवन में बेटा; बाप नहीं आया है
पूत ! तुम्हारे पिता गुणों के थे अजगुत ही खान
मेरा सुख न देख सका, तो दुष्ट हुआ भगवान ।’’
कुछ-से-कुछ वह बोले फदके, हालत बहुत विचित्रा
दीवारों पर लगे देर तक गढ़ा हुआ-सा चित्रा
चैखट से ठोके कपाल को बार-बार ही माथा
छाती पर पटके हाथों को लपकी ज्यों पिटना-सा
कभी दौड़ कर गेना को है गले लगाती माय
दुख सें चीखे रह-रह कर वह; ज्यों, रंभाती गाय
नोच-नोचकर अपनी साड़ी कर ली है गुदड़ी-सी
बिखरे बालों में धामिन की आँखें बड़ी-बड़ी-सी
सौ विधवाओं-सी कुहरे, कपसे रोये बैठ अकेले
देख-देख यह गेना के आँसू के चलते रेले
कभी बोलती, ‘‘प्राण जले हैं, सुलग रही है देह’’
कटी हुई बकरी-सी तड़पे; पति की सुधि से नेह
‘‘सूना-सूना-सा लगता संसार वृथा, श्मशान
चिता सजा दो मेरी भी अब, पूत; पुरे अरमान
बाघ खा गया बाप को तेरे, मेरा ही था पाप
जहर खिला दो, अभी मिटे यह जीने का संताप’’
टोले भर की कई जनानी कस कर पकड़े आय
कसी हुई मुट्ठी से लेकिन मछली बाहर जाय
पाँच साल बीते ऐसे ही, आखिर कब तक जीती
गुदड़ी-गुदड़ी-सी साड़ी को आखिर कब तक सीती
भोर उगा जाता था जब, लपकी की उतरी साँझ
गेना जीवन में जेठ उतरा, पावस हो गई बाँझ
पाँच साल बीते, तो उसके सब ही बीते सुख
गेंद बना कर गेना को मिल-जुल कर खेले दुख
टूअर बना कि गोतिया ने भी हथियाला चरकठिया
हुआ प्रवासी सौ जन्मों का गेना योगी-जतिया
दाना-दाना को बिलखे वह जगहµकुजगह घूमे
अन्तर जैसे-जैसे धधके, बाहर आँसू चूवे
कोई द्वार न आने देता, वह जो रहा अछूत
अगर कहीं छू जाए ‘उनसे’ विपदा धरी अकूत
बहुत विधाता निष्ठुर होता; जल्लादों-सा क्रूर
जो निर्दोष, उसे ही करता थुकुच-थुकुच कर चूर
एक साथ टूअर पर विधि की विपदा, भूख-पियास
बहुत कठिन है सब ही लिखना गेना का इतिहास
हरदम ही लगता है उसको यही, और बस ऐसा
अटक गये हों प्राण कंठ में कुछ; कंकड़ के जैसा
कभी-कभी खुट्टा की बकरी बाघिन बाध-सी ही लगती
मर्द कोई हो लगे पिता-सा; औरत माँ-सी लगती
दीवारों से लगा कपसता, कोने से लग रोए
जीवन-नद में दुख के ही घड़ियालों को वह ढोए
छूटा साथ स्नेहों से, तो संगी का संग छूटा
एक ‘दुलारी’ थी, उसका भी रिश्ता और से जूटा
दुख की एक अकेली साथी, वह भी उससे दूर
गिरि से गिरा ज्यों पत्थर पर हो, मन था चकनाचूर
दिन-दिन भर वह टुक-टुक ताके, रात-रात भर हेरे
जीवन-मृत्यु उस पर डोरी फेरा-फेरी फेरे
साल-साल भर पड़ी खूब ही सोच-फिक्र की हूल
जीवन दुखी करे गेना को; ज्यों, कुन्ती को भूल
साल-साल भर हुई दुखों से उसकी आँख मिचैनी
साल-साल भर देह-दंश ने उसकी कर दी दौनी
दुखती आँखें, कमर पिराती, गोड़-हाथ सब दुखते
आँसू चाहे जितने आए लुढ़के, अधर और भी सुखते
बैठ द्वार पर सोचा करता घण्टा-घण्टा भर
कोचा करता अंगुली देह में चिन्ता से हो तर
सोचा करता, ‘‘बाकी जीवन को वह कैसे काटे
क्या कादा-कीचड़ के संग ही अपना यह दुख बाँटे
दोष भाग्य का क्या सचमुच में या समाज का खेल
जो कूड़ा-कर्कट में उसका छिपा भाग्य का मेल
अगर यही, तो दुख ही क्या है’’ गेना मन में सोचे
अपने बीस बरस के वय को गाली दे-दे कोसे
गेना को मालूम नहीं है, क्या जीवन का सुक्ख
तीस बरस का वह है जो, तो साठ साल का दुक्ख
बाहर-भीतर से ऐसा ही उस पर चला वो चक्र
था तो नहीं, ही, दीख रहा है; जैसे, अष्टावक्र ।