कौन कहता है पानी का बुलबुला यह दुनिया है,
समय की रेत पर लिखा कुछ भी नहीं रह पाता है।
मैं तो देखता हूँ, काल का पंछी काले-उजले
डैनों से उड़ा यही अस्फुट स्वर में गाता है-
”सच्ची साधना का पुत्र, आत्मबल तो
विश्व क्या सारे ब्रह्माण्ड का जेता है!
अरे समय का दबाव तो कोयला को भी
मिटाने के बदले हीरा बना देता है।
विश्वास हो यदि अपने में
सपने यथार्थ में ढल जाते हैं
श्रम की आँच में इतना बल है, ‘इतना’ कि
लोहे भी पानी की तरह गल जाते हैं।“
”गैलीलियो! गैलीलियो!“ अरे किसने मुझे पुकारा?
चार सौ सीढ़ियाँ लगे याद के कोठे से नीचे किसने मुझे उतरा?
इटली, हाय मेरी प्यारी मातृभूमि इटली के,
एकान्तवास तक कैसे पहुँच गया विश्व की जय का नारा?
धर्म ने फिर से मेरे ‘पापों’ को विचारा है,
जैसे कि इतिहास को आज के काजल से सँवारा है।
मैं एक में खलनायक, एक में नायक,
मानो एक ही नाटक का खेल यह दुबारा है।
मेरा पाप-ज्ञान के अंजन से सत्य के दर्शन!
मेरा पाप-धूल में पल नक्षत्रों का कर्षण!
धरती का धुरी पर सिद्ध करना नर्त्तन!
ये ही, कुछ ऐसे ही हैं मेरे इन्द्रधनुषी पाप,
जिनके कारण मुझे मिला एकान्तता का अभिशाप।
जब मुझे भोले पादरियों ने सजा दी,
मैंने सूली पर चढ़े ईसा को किया था प्रणाम!
हँसकर कहा था मैंने ”सत्य की घोषणा के लिए प्रभो,
मुझे दिया इतना छोटा, खुद ले लिया इतना बड़ा इनाम।“
साधना से शाप भी वरदान बन जाता है,
कवि का दुखड़ा ज्यों गान बन जाता है।
एक निरपराध का दंड प्रतिभाशालियों के लिए
सच पूछिये तो आन बन जाता है।
अरे एकान्त तो शान्ति का प्रहरी है,
निर्जन में होती रहीं साधनाएँ गहरी हैं।
छूट गये लोग लेकिन मातृभूमि छूटी नहीं,
इटली मनभावन मुझे गोद में लिये रही।
नाच-नाच धरती रिझाती रही मुझको,
सूर्य नक्षत्र ने बातें अनमोल कहीं!
उसी एकान्त ने खोल दिये नये क्षितिज,
ज्ञान विज्ञान से मेरे लिए और कुछ!
गह लिये अक्षरों ने काग़ज़ के पन्नों पर,
धरती से आकाश तक के अनुभव-भरे दौर कुछ!
मैं तो ऋणी हूँ सदा सज़ा देने वालों का,
होता है ऋणी जैसे बीज सदा मिट्टी का-
मिट्टी यदि बीज को करे नहीं नज़रबन्द,
कैसे नये पौधे का जन्म हो सकता है?
फिर से विचार आप करने हैं जा रहे,
‘सत्यमेव जयते’ का वाक्य स्वयंसिद्ध है।
मैं हूँ कृतज्ञ आप इतना तो मान गये,
धर्म में प्रवेश ज्ञान का नहीं निषिद्ध है।
क्रांति भरे सत्य के उफनते विचारों में,
धर्म का चिरन्तन स्वरूप सँवर जाता है।
जैसे जल में मिले अदृश्य नगण्य कणों को,
हिलकोरने से ठोस रूप उनका उभरकर निखर जाता है।
जैसे विचारों के दूध को मथे बिना
धर्म का मिलता नहीं है नवनीत
विप्लवी विचारों की लहरों से, धारों से
टकराकर टूटकर साथ ही शिलाएँ जातीं शालिग्राम बन पुनीत।
मेरी मुक्ति के लिए चिन्ता ही व्यर्थ है,
सत्य का अन्वेषक सदा स्वयं ही समर्थ है।
कलाकार, विज्ञानी अमरता के अभिलाषी नहीं होते हैं,
स्वर्ग में जाकर सुख की नींद नहीं सोते हैं।
बार-बार जन्म लेते हैं, बिना पाल की
मनुष्यता की नाव को निष्ठा से खेते हैं।
मैं गैलीलियो, न मरा हूँ न मरूँगा,
मुझे क्या क्षमादान दोगे, मैं नहीं हूँ दीन!
मैं ही था न्यूटन, मैं ही था आइन्न्सटीन!
और अभी कितनेरूप धरकर मुझे जाना है-
अज्ञान में डूबती दुनिया को सँभालना-बचाना है।
कलाकार-विज्ञानी के लिए न होता है स्वर्ग, न नरक,
वह तो जनरव का वासी, उसको प्यारी उसकी धूल-भरी सड़क।
ज्ञान का सूर्य अन्धविश्वासों की घटा अनजाने देता है चीर,
जैसे, अनदेखे पहुँच जाता है लक्ष्य पर शब्दबेधी तीर।
(26.8.70)