गोताख़ोर समय के आगे
याचक होकर जाना कैसा
अतल सिन्धु के मोती होकर
बैठे तो पछताना कैसा ?
ख़ाली चौदह रत्नों के घर
सतत सिन्धु-मन्थन में जीना
दरकी सीपी की दीवारों से
रिसते खारे जल पीना
इतना अन्तर्ज्वार मिला तो
कोई और ठिकाना कैसा ?
बादल की आँखों में आए
तो बादल का दुख आधा है
लेकिन सीपी की पलकों में
स्वाति बून्द की मर्यादा है
कोई सीमा रेखा हो तो
आगे और बहाना कैसा ?
यह अर्जित परिवेश स्वयं का
अवरोधक हैं तरह-तरह के
भारी इतने हो, तुमको
क्या छू पाएँगे ज्वार सतह के
फिर निःसंग छूट जाने का
कोई डर बचकाना कैसा ?
यूँ तो हार नौलखा भी हैं
सागर छूट गए हैं जिनके
लेकिन चुभती है मंजूषा
भेद खुले जब उजले दिन के
जल-थल का संसार अलग है
दोनों को उलझाना कैसा ?