गोताखोर समय के आगे / अमरनाथ श्रीवास्तव

            गोताख़ोर समय के आगे
            याचक होकर जाना कैसा
            अतल सिन्धु के मोती होकर
            बैठे तो पछताना कैसा ?

ख़ाली चौदह रत्नों के घर
सतत सिन्धु-मन्थन में जीना
दरकी सीपी की दीवारों से
रिसते खारे जल पीना
            इतना अन्तर्ज्वार मिला तो
            कोई और ठिकाना कैसा ?

बादल की आँखों में आए
तो बादल का दुख आधा है
लेकिन सीपी की पलकों में
स्वाति बून्द की मर्यादा है
            कोई सीमा रेखा हो तो
            आगे और बहाना कैसा ?

यह अर्जित परिवेश स्वयं का
अवरोधक हैं तरह-तरह के
भारी इतने हो, तुमको
क्या छू पाएँगे ज्वार सतह के
            फिर निःसंग छूट जाने का
            कोई डर बचकाना कैसा ?

यूँ तो हार नौलखा भी हैं
सागर छूट गए हैं जिनके
लेकिन चुभती है मंजूषा
भेद खुले जब उजले दिन के
            जल-थल का संसार अलग है
            दोनों को उलझाना कैसा ?

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