सुनो
नष्ट नहीं हुआ अभी तक आलोक
जिसने बुना हमेशा
आर-पार जाने के लिए एक पुल
थके नहीं पाँव
काँपती उँगलियों में
बाकी है सँवेदन
खिड़की पर
उतरती है सुबह
उन्हीं मुग्ध रँगों के साथ
आहटें
आकुल
प्रश्नहीन तैरती हैं
जुगनुओं की तरह
आस-पास
एक हल्की उदास गूँज में
डूबी हुई शाम
प्रतीक्षा करती है
गीतों की भटकी हुई कड़ियों को
जिन्हें गोधूलि बेला में
गाया करती है नदी.