गोपी उपालंभ (रास केदारा)
 
(1)
महरि तिहारे पायँ परौं, अपनो ब्रज लीजै। 
सहि देख्यो, तुम सेां कह्यो, अब नाकहिं आई, कौन दिनहिं दिन छीजै।।1।।
 ग्वालिनि तौ गोरस सुखी, ता बिनु क्यों  जीजै।
 सुत समेत पाउँ धारि, आपुहि भवन मेरे,  देखिये जो न पतीजै।।2।। 
अति अनीति नीकी नहीं ,  अजहूँ सिख दीजै।
 तुलसिदास प्रभु सों कहै उर लाइ जसोमति, ऐसी बलि कबहूँ नहिं कीजै।।3।।
(2)
अबहि उरहनो दै गई , बहुरौ फिरि आई । 
सुनु मैया! तेरी सौं  करौं, याको टेव लरन की, सकुच बेंचि सी  खाई।।1।। 
या ब्रज में लरिका धने, हौं ही अन्याई । 
मुँह लाएँ मूँडहिं चढ़ी, अंतहुँ अहिरिनि, तू सूधी करि पाई।।2।। 
सुनि सुत की अति चातुरी जसुमति मुसुकाई । 
तुलसिदास ग्वालिनि ठगी, आयो न उतरू, कछु, कान्ह ठगौरी लाई।।3।