गोपी बिरह(राग केदारा-1)
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ऐसो हौंहुँ जानति भृंग।
नाहिनै काहूँ लह्यो सुख प्रीति करि इक अंग।1।
कौन भीर जो नीरदहि, जेहि लागि रटत बिहंग।
मीन जल बिनु तलफि तनु तजै , सलिल सहज असंग।2।
पीर कछू न मनिहि, जाकें बिरह बिकल भुअंग।
ब्याध बिसिख बिलोक नहिं कलगान लुबुध कुरंग।3।
स्यामघन गुनबारि छबिमनि मुरलि तान तरंग।
लग्यो मन बहु भाँति तुलसी होइ क्यों रसभंग?।4।
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उधौ! प््राीति करि निरमोहियन सों को न भयो दुखः दीन?।
सुनत समुझत कहत हम सब भईं अति अप्रबीन।1।
अति कंरंग पतंग कंज चकोर चातक मीन।
बैठि इन की पाँति अब सुख चहत मन मतिहीन।2।
निठुरता अरू नेह की गति कठिन परति कही न ।
दास तुलसी सोच नित निज प्रेम जानि मलीन।3।