Last modified on 24 मार्च 2011, at 12:23

गोपी बिरह(राग धनाश्री-2) / तुलसीदास

गोपी बिरह(राग धनाश्री-2)

()

ससि तें सीतल मोकौं लागै माई री! तरनि।
याके उएँ बरति अधिक अँग दव,
वाके उएँ मिटति रजनि जनित जरनि।1।

सब बिपरीत भए माधव बिनु,
हित जो करत अनहित की करनि।

तुलसीदास स्यामसुंदर-बिरह की ,
दुसह दसा सो मो पैं परति नहीं बरनि।2।

()

संतत दुखद सखी! रजनीकर।
स्वारथ रत तब, अबहुँ एकरस,
 मो केा कबहूँ न भयो तापहर।1।

निज अंसिक सुख लागि चतुर अति,
कीन्ही प्रथम निसा सुभ सुंदर।
अब बिनु मन तन दहत, दया करि।
राखत रबि ह्वै नयन बारिधर।2।

राख्यो है जलधि गँभीर धीरतर।
ताहु ते परम कठिन जान्यो ससि,
तज्यो पिता, तब भयो ब्योमचर।3।
 
सकल बिकार कोस बिरहिनि रिपु,
 काहे तें याहि सराहत सुर नर!
 त्ुालसिदास त्रैलोक्य मान्य भयो,
 कारन इहै,गह्यो गिरिजाबर।4।