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गोपी बिरह(राग धनाश्री-3) / तुलसीदास


गोपी बिरह(राग धनाश्री-2)
 
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 लागियै रहति नयननि आगे तें,
 न टरति मोहन मूरति।
नील नलिन स्याम, सोभा अगनित काम,
 पावन हृदय जेहिं फूरति।1।

अमित सारदा सेष नहीं कहि,
सकत अंग अँग सूरति।
तुलसिदास बड़े भाग मन
लागेहु तें सब सुख पूरति।2।

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जब तेे ब्रज तजि गये कन्हाई।
तब ते बिरह रबि उदित एकरस सखि! बिछुरन बृष पाई।1।

 घटत न तेज, चलत नाहिन रथ, रह्यो उर नभ पर छाई।
इन्द्रिय रूप रासि सोचहि सुठि, सुधि सब की बिसराई।2।

भया सोक भय कोक कोकनद भ्रम भ्रमरनि सुखदाई।
चित चकोर , मन मोर, कुमुद मुद, सकल बिकल अधिकाई।3।

तनु तड़ाग बल बारि सुखन लाग्यो परि कुरूपता काई।
 प्रान मीन दिन दीन दूबरे, दसा दुसह अब आई।4।

तुलसीदास मनोरथ मन मृग मरत जहाँ तहँ धाई।
राम स्याम सावन भादौं बिनु जिय की जरनि न जाई।5।