Last modified on 23 दिसम्बर 2016, at 08:45

गोपी विरह / अमरेन्द्र

दन मास बीते, आए बरस सखी री हाय
मेरे न कन्हैया आए निठुर बलम है
कह के गए थे, गोपी आऊँ मैं यथा ही शीघ्र
लेकिन निमोही नहीं अक्रूर से कम है
दूत न भिजाए एक, एक पतिया न आई
घायल वृथा ही जीऊँ जीवन अधम है
वारण पे वारन वे हमको उवारेंगे न
कोमल कलेजा पाए, आली री वहम है ।

उदित है चाँद नभ तारिकावली के साथ
नीचे अवनि-शिशु को चाँदनी खेलाती है
चाँद, चाँद, चाँद, चाँद, चाँद ये नहीं है, सखी
आग का ही पिण्ड, बात मन में समाती है
तारिकावली न तारे, ये तो चिनगारियाँ हैं
सभी ही दिशाओं में तो आग ही दिखाती है
चाँदनी न चाँदनी है आग की लपट है ये
जलन घायल अति तन को जलाती है ।

जब भी विलोकूँ मैं कदम्ब यमुना के तीर
घिरे सुधि-घटा-घन मानस-गगन में
मुरली बजाते औ चराते धेनु शिशु गण
केलि करते कभी औ क्षीर पीते क्षण में
सुधि आते उनकी मगन मेरा मन होता
रास जो रचाये घनश्याम मधुवन में
कालेय पे क्रीड़ा वो कालिन्दी में कन्हैया का
चीर को चुराते चितचोर आते मन में ।

तरणि तनूजा तुम तनिक कृपा तो करो
निकट कन्हैया बहो मथुरा नगर में
जब तक पूछे नहीं, रुके रहना तू वहीं
जहाँ भी खड़े हो कान्हा जिस भी डगर में
मैं थी सूखी-सूखी हुई तुम्हारे वियोग में तो
गोपी नैन के कारण आई मैं लहर में
आए न कन्हैया जो तो पग-रज ले आना तू
आऊँगी न अब तेरे अगर-मगर में ।

जाऊँगी जोगन होके मैं तो कन्हैया के पास
केश को जटा ज्यों बाँधे, त्रिशूल ले हाथ में
भसम रमाए अंग, संग में कमंडल ले
गेरुआ वसन बाँधे सभी होंगी साथ में
राधा-चातकी को कान्ह मिलेंगे निशंक, सखी
सौतन देखे न कहीं, जाऊँगी मैं रात मंें
मिलेंगे यदि ना कान्हा, छोड़ूंगी वहीं पे प्राण
झेलूंगी घायल जो अभागिनी के माथ में ।

आई है वसन्त ऋतु मदन पति के संग
सरसों-सरिता है या पीली-पीली सारी है
बौरों की बहार आई, भौरों की भी भारी भीड़
कोयल की काकली से गूंजित कियारी है
नव-नव फूल फूले पवन पूरब चले
स्वामी जी कन्हैया बिना ऋतु न ये प्यारी है
ठौर है तुम्हारा नहीं, यहाँ क्यों मदन आए
निठुर कन्हैया ने ये बगिया उजारी है ।

जेठ का महीना सखी आतप कठोर पड़े
कहीं तो दिखाती नहीं जग हरियाली है
अथाह अनन्त अब कालिन्दी सूखी-सी लेटी
विरह-व्यथा से कोई नारी सूखी काली है
प्यासे हैं विकल पशु, चीखते शृगाल-गिद्ध
कौन न विकल नर याकि विधुवाली है
घायल जलेंगे नहीं हम हैं अनल-पु×ज
और ये गोकुल, जैसे, वन बिना माली है ।

बरसा सुहानी ऋतु आई है सखी री फिर
उमड़-घुमड़ घन गरजे गगन में
भरे हैं सरित-नद, झूमते कदम्ब-वन
धरती की प्यास बुझी अचेत मगन में
रह-रह रव करे झिंगुर-दादुर-दल
पिकी की पुकार होती कानन सघन में
घायल हूँ कान्ह बिना जी को जारे बरखा है
जीऊँ तो जीऊँ मैं कैसे भीषण अगन में ।

सर में सरोज फूल, संग में मुकुल-कुल
मकरन्द नीर है या नीर मकरन्द है
ऊपर गगन-ताल में भी खिले शशि-कंज
तारक-मुकुल-दल, चाँदनी अमन्द है
श्यामल-श्यामल अलि फिरते चारों ही ओर
नभ में जो घनश्याम-खंड, अलि-वृन्द है
आई है शरद ऋतु, आए न कन्हैया मेरे
क्षितिज में चाँद है, न मेरा ब्रजचंद है ।

चला जो हेमन्त भूप मिलने शिशिर रानी
डर से विकल बनी सृष्टि है कुहासा में
सर के सरोज लुप्त, सुप्त मधुकर-वृन्द
घन में मलीन शशि अजीब तमाशा में
ठंड भी ठिठुरती है हेमन्त-शिशिर मिले
हम ठिठुरेंगे नहीं पड़ी जिस सासा में
सब तो प्रिये के संग बनी होंगी वेल्लि-द्रुम
घायल आयेंगे कान्ह हम इस आशा में ।

जीऊँगी-जीऊँगी नहीं अधिक दिवस और
आया है निकट मेरे मुख बाए काल है
खड़ा हैं पसार जीभ, लोहू से लोहान दंत
लाल-लाल आँखें किए नासिका विशाल है
मरणोपरान्त कान्ह आएगी तुम्हारी याद
कालिन्दी-करील-कुंज-कदम्ब की डाल है
देहहीन देहधारी खोजूँगी सकल विश्व
कहीं तो मिलोगे कान्ह विश्वास विशाल है ।