(`कुछ भी खाकर करती है गोबर पवित्र´ -प्रेमरंजन अनिमेष की इस कविता-पंक्ति को पढ़कर)
दिल्ली में या हैदराबाद में
बहुत सम्मान है गायों का
पतियों की व्यस्ता से ऊबी स्त्रियों की
साथिन हैं, वही
उन्हें अपने हिस्से की पूरी-मिठाई खिलातीं
बतियातीं-मनुहार करतीं वे
चलो हटो माते, द्वार से अब
बच्चे आने को हैं
हटो, थोड़ा श्रम भी करो माते
कि द्वार-द्वार खाकर भैंस हो रही हो
बहुत कुछ सड़क पर भी है
पोली पैक
थोड़ा उधर भी मुँह मारो
अरे-रे छि: छि:
यह क्या किया माते
चिपचिपी कुत्ते के गूँ सी
बास मारती विष्ठा
ओह, माते
तुम तो अपने कर्तव्य भी भूल रही हो
`गोबर पवित्र´ किया करो माते
`कुछ भी खाकर´।