बल-वैभव-विक्रम-विहीन यह जाति हुई जब सारी,
जीवनरुचि घट चली; हट चली जग से दृष्टि हमारी।
प्रभु की ओर देखने जब हम लगे हृदय में हारे,
नए पंथ कुछ चले चिढ़ाने 'वह तो जग से न्यारे'।
उस नैराश्यगिरा से आहत मन गिर गया हमारा,
अंधकारमय लगा जगत यह, रहा न कहीं सहारा।
अटपट बानी ने जीवन की खटखट से खटकाया,
लोकधर्म के रुचिर रूप पर चटचट पट फैलाया।
जिसके तानों में फँसकर मति गति थक चली हमारी,
मर्यादा मिट चली लोक की, गई वृत्ति वह मारी।
होता अभ्युदय जाति का फिर फिर जिसके द्वारा,
हरती हैं जो सकल हीनता, भरती हैं सुख सारा।
जाय वीरता, मान न उसका यदि मानस से जावे;
जाय शक्ति पर भक्ति शक्ति की यदि जनमन न भगावे;
पर न भारती-पाद-पद्म तज पूज्य बुध्दि यदि भागे;
कितनी ही पर ताप तप्त तनु पिसकर पीड़ा पावै।
पर यदि दुष्टदमन पर श्रद्धा मन में कुछ रह जावै;
लोकरक्षिणी शक्ति उदय तो अपना आप करेगी,
विद्या, बल, वैभव वितरित कर सब संताप हरेगी।
पर जनता के मन से ये शुभ भाव भगाने वाले,
दिन दिन नए निकलते आते थे मत के मतवाले।
इतने में सुन पड़ी अतुल सी तुलसी की बर वानी,
जिसने भगवत्कला लोक के भीतर की पहचानी।
शोभा-शक्ति शील-मय प्रभु का रूप मनोहर प्यारा,
दिखा लोकजीवन के भीतर जिसने दिया सहारा।
शक्तिबीज शुभ भव्य भक्ति वह पाकर मंगलकारी,
मिटी खिन्नता, जीने की रुचि फिर कुछ जगी हमारी।
जिस दंडकवन में प्रभु की कोदंड-चंड-ध्वनि भारी,
सुनकर कभी हुए थे कंपित निशिचर अत्याचारी।
वहीं शक्ति वह झलक उठी झंकार सहित भयहारी,
दहल उठा अन्याय, उठी फिर मरती जाति हमारी।
प्रभु की लोकरंजिनी छवि पर जब तक भक्ति रहेगी,
तब तक गिर गिरकर उठने की हम में शक्ति रहेगी।
रंजन करना साधुजनों का, दुष्टों को दहलाना,
दोनों रूप लोकरक्षा के हैं, यह भूल न जाना।
उभय रूप में देते हैं जिसमें भगवान् दिखाई,
वह प्राचीन भक्ति तुलसी से फिर से हमने पाई।
यही भक्ति हैं जगत् बीच जीना बतलानेवाली,
किसी जाति के जीवन की जो करती हैं रखवाली।
खींच वीरता, विद्या, बल पर से जो भक्ति हमारी,
अपनी ओर फेर करते हों लोकधर्म से न्यारी।
हमें चाहिए उनसे अपना पीछा आप छुड़ावें,
तुलसी का कर ध्यान न उनकी बातों में हम आवें।
(माधुरी, अगस्त, 1927)