हर साल
गर्मियाँ शुरू होते ही
नानी लटका देती थी
मुंडेर से मिट्टी की हंडिया
भर कर जल से।
नहीं भूलती थी
डालना रोज़ पानी हंडिया में
शालिग्राम का भोग लगाने के पश्चात,
संभवतः यह भी था एक हिस्सा
उनकी पूजा का।
उनको था विश्वास
की गौरैयों के रूप में
आते हैं प्यासे पूर्वज
और चोंच भर पानी से हो तृप्त
कर जाते है हम पर
आशीष की वर्षा।
हम बच्चों के लिए
यह था एक कौतुहल
अनेक प्रश्नों के साथ
होते हम प्रतीक्षारत रोज
इस अनुष्ठान के लिए।
और एक दिन
नानी नहीं रहीं।
वे भी किसी दिन
अब आतीं होंगी
हमारी मुंडेर तक
शामिल गौरैयों के झुंड में
तलाश में जल की
और दे जाती होंगी
ढेर सारा आशीष।
पुत्र!
पात्र को रीता न होने देना
हम भी आयें शायद
एक दिन तुम्हारी मुंडेर तक
गौरैयों के झुंड में।