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गौरी / शब्द प्रकाश / धरनीदास

83.

सुमिरो हरिनामहिँ बौरे।टेक।
चक्र समान चले चित चंचल, मूल मता गहु निश्चल कौरे॥
पाँचहुते परिचय करु पानी, काहेको परत पचीस के झोँरे।
जब लगि निर्गुन पंथ न सूझै, काज कहा महि-मंडल दौरे।
शब्द अनाहद लखिना आवै, चारोँ पत चलि ऐसहिँ गौरे।
ज्यों तेली को बेल बेचारा, घरहिमें कोस पचासक भँवरे॥
दर्या धर्म नहि साधुकि सेवा, काहेके सो जनमेध रचोरे।
धरनीदास तासु वलिहारी, झूठ तजो जिन साँचहि धौरे॥1॥

84.

सुमिरो एकै राम गोसाँई।टेक।
जग धंधा परिहरि अंधा नर, गहु गुरु चरन शरन मन लाई॥
निर्लज्जा लरिकन सँग डोल्यो, तबहीं होत कहा चतुराई।
अब धनि सुत जन धन मन रातो, साँचके मानत झूठ सगाई॥
जीव दया सत सुक्कृत धरिके, तजु ममता हमता हलुकाई।
काम क्रोध तृष्णा फल तोरो, तब अमृत रस पियहु अघाई॥
योगी पंडित दानि कवीश्वर, यह सब देह धरेँ फिरि आई।
धरनीदास कहै गुरुगम भइ, भक्ति बिना भवपार न जाई॥2॥

85.

मालिक एक अल्लाह हमारा।टेक।
जाके एक सखुन फरमाये, भैगो चौदह तबक तपारा॥
दूजा कोइ नजर नहि आवै, जैसा मन-महबूब पियारा।
है हाजिर नाजिर वह सोई, ताबे तालिब कोटि हजारा।
जाकी निकिर फिकिर करबे को, मीर पीर पैगम्बर सारा।
मका मदीना हाजत मेटो, रोजा ईद मसीद विसारा॥
महरम जानि हरममेँ राखो, मेहबान होइ देहु दिदारा।
बार बार वंदा शिर नावै, धरनीदास गरीब बेचारा॥3॥

86.

अंधा नर देखु नयन उघारी।टेक।
काम क्रोध मदलो भक्ति सेजियाँ, सोवत पाँव पसारी॥
वचन विचार सुदृढ़ करि आये, भजन करबि यहि पारी।
अब किन खोजसि वस्तु अगोचर, पुनि चलनो कर झारी॥
एकै ब्रह्म सकल घट व्यापक, निगम कहै परचारी।
जान बूझि विष खात अवध होइ, अजहुँ सँभारु अनारी॥
हिन्दु तुरुक दुवो मत माते, खेलत धुंध धमारी।
सब जीवनते बैर बिसारो धरनी ता बलिहारी॥4॥

87.

बन्दे तू काहे को होत दिवाने।टेक।
एक अल्लाह दोस्त है तेरा, और तमाम बेगाना॥
कौल करारि बिसारि बावरे, माल मनी मन माना।
आखिर नहि दुनियाँ मे रहना, बहुरि वहाँ ही जाना॥
जाहिर जीव जहान जहाँ लगि, सबके एक खोदाई।
बहुरि गनीय कहाँते आया, जापर छूरि चलाई॥
दूर नहीं है दिलका मालिक, बिना दर्द नहिँ पैहो।
धरनी वाँग बुलंद पुकारै, फिरि पाछे पछितैहो॥5॥

88.

देखो आवत वर वरियानी।टेक।
साँचि सुलग्न सुदिन यह आवो, अगुमन अमरि है पाती॥
गहा गहा गह वाहन वाजे, धजा चलै फहराती।
चमकत खाँड पुरक्कत नेजा, गर्द गगन उडियाती॥
परिछन को परिवार पुलक होइ, साज करै बहु भाँती।
धावन धावत सुधि पहुँचावत, सखि गावत रँग राती॥
जब वरियात दुवारे ठाढ़ी, मानमती मुसुकाती।
प्रेम दिया मोतिया के आछत, परछि परछि हुलसाती॥
सोत जहाँ यश भवन सु-ऊँचो, दूलह अमर जाती।
धरनी नीको व्याह वनो है, जँहवा दिवस न राती॥6॥

89.

अब हरि दासि भई।टेक।
ताते गहो चरन चित लाई॥
रही लजाय लोक की लज्जा, बिसरि गई कुल कानि।
उपजी प्रीति रीति अति बाढ़ी, बिनही मेाल विकानि॥
छाजन भोजन को नहि शंसय, सहजहि सहज कमाये।
संत सहेलरि छोड़िके अब, नेक नहीं बिलाये॥

दुखदायी दरसै नहि दुहु दिसि, दरसे सकल दयाल।
अपनो प्रभु अपने गृह पाओ, छूटि परो जंजाल॥
अब काहूके द्वार न आओँ, नहि काहूके जाँव।
धरनी तहाँ साँच पाओ अब, जहाँ धरनी को नाँव॥7॥

90

सो सबते अधिकार।टेक।
बिसरो विषय विकार जहाँ लगि पसरो परम पहार।
हरि हीरा हृदयते धरि राखो, भवन भवो उँजियार॥
दुरमति भाजि दुंदुभी बाजी, तन ताजी असवार।
पाँचहु को परपंच न लागै, जोँ हठ करइ हजार॥
कर्म भर्म ममता मन मेटयो, जग-धंधाते न्यार।
ऋधि सिधि सहज परे पग लोटेँ, शिर नावै संसार॥
गिरिवन अग्नि पवन जल थल मेँ, राम रहेँ रखवार।
धरनी कहत सुनो भई संतो, कैसहुँ बँके न बार॥8॥