गौरैया का घोंसला, बरगद की वह छाँव,
कोयल की वह कूक और कागज़ की वह नाव।
ज्ञान और विज्ञान का, क्या है यही प्रभाव,
सूखे बाग़-तालाब सब, सूखा हो गया गाँव।
जब-तब काँपे ये धरा, भूस्खलन-विस्फोट,
बाढ़ें-आंधी-आपदा, भूकम्पों की चोट।
लोहे और कंक्रीट के, मनमाने निर्माण,
हड़पी भूमि किसान की या छीने उसके प्राण।
चकित परिन्दों का उठा, दुनिया से विश्वास,
'सभ्य दरिन्दे' ले गए, चिड़ियों के आवास।
नकली खुशबू साँस में, मुँह से आती बास,
जहरीले परिवेश में, कृत्रिम हैं अहसास।
क्या मिट्टी-पानी-हवा, सब के सब बेहाल,
महाबली मानव बना, खुद कुदरत का काल।
प्रकृति के इस तंत्र से, यह कैसा खिलवाड़,
क्या चेतेगा तू तभी, जब झेलेगा मार।