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ग्रीष्म / सुरेश विमल

1
भाप होती हुई
नदी का आर्तनाद
कौन
सुन पाता है...

अग्नि-रस बरसाता है
सूर्य-घट
पागल ऊँट सा
जंगल
रह रह कर
गर्राता है...!

2
आश्चर्य है कि कैसे
बूढ़ा कलुआ
ककड़ी की नाईं
जेठ की दुपहरी को
चबा जाता है...

मीलों चलता है
कोयल की ठेलिया
धकेलता हुआ
और-
गुनगुनाता है...!

3
दिन चढ़ा
कि नीम के खोखल में क़ैद
नन्हे हरियल की आंखें
चुग्गे की तलाश में निकले
माँ-बाप की प्रतीक्षा में
खो जाती है...

लगता है इसी से
हर दिन उसकी आंखें
कुछ और
बड़ी हो जाती हैं...!


4
परदादा कि सारंगी पर
पसीना टपकाते हुए
सुनाता है
'नरसी का भात'
बड़ के नीचे बैठा
जोगी...

घर जाने का समय
हुआ नहीं होगा अभी
झोली उसकी
भरी नहीं होगी...!