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घटाओं से परे / निदा नवाज़

क्यों न इस समय
घटाओं से परे
नफ़रत और संकीर्णता के
क्षितिज से दूर
बहुत दूर
मानवता और केवल मानवता
के दीये जलाएं
खुले आकाश में रहकर
शत्रुता और भेद-भाव की
दीवारें गिराएं
अपनी प्रेम-फुहार से
जलते पल की
आग बुझाएं
सृष्टि के उजले तन से
गर्द की परत हटाएं
टूटे स्वप्न को जोड़ें
दीन-दु:खी को
प्रीत की गोद में सुलाएं
सारी मानवता को
उन रास्तों पर दल दें
जो शताब्दियों पर फैले हैं
लल्लेश्वरी और नुन्द-ऋषि
के रस्ते पर
जिनके माथे पर
हर क्षण सत्य का सूर्य
चमकता है
आओं, मानवता के शब्द को
उसको छीना हुआ वह रूप
वापिस दिलाएं
जो सूर्य की पहली किरण की तरह
सारे वातावरण को
चमकाता है
आओं कि हमारा दर्द
केवक हमारा नहीं
तुम्हारे आंसू
केवल तुम्हारे नहीं
यह सारी मानवता का दर्द है
यह हम सब का
साँझा दर्द है।