मेरा परिचय
साहित्यिक अभिरुचि पारिवारिक विरासत के रूप में अल्पायु में ही सहज सुलभ हो गई थी। शायद सृजन का पहला प्रयास १३-१४ वर्ष की आयु में किया होगा। विद्यालय में विज्ञान का विद्यार्थी होने के परिणामस्वरूप हिन्दी और संस्कृत पाठ्यक्रम से हमेशा के लिये हट गये। सन उन्नीस सौ साठ के दशक में विद्युतीय अभियान्त्रिकी की शिक्षा के समानान्तर निजी चेष्टाओं से हिन्दी, उर्दू, पंजाबी, और अंग्रेज़ी साहित्य का सीमित अध्ययन निरन्तर चलता रहा। उन्हीं दिनों में अन्तर्राष्ट्रीय भाषा एस्पेरान्तो भी सीखी। साथ ही साथ मौलिक काव्य-रचना का प्रयास भी ज़ारी रहा। अगले १५ वर्षों में विभिन्न शैक्षणिक संस्थानों में मनोविज्ञान, सांख्यिकी, अर्थशास्त्र, गणित, व संगणक तथा वाणिज्य आदि से संबंधित विषयों के अंतर्गत कुछ स्नातकोत्तर अध्ययन किया तो, किन्तु अधिकांश निरुपाधि ही रहा। इस बीच बंगला भाषा सीख कर उसके साहित्य का भी आस्वादन किया। संभवत: भारत से बाहर निकलने के उपरान्त चिन्तन कुछ अधिक गहराया। धनोपार्जन विशेष न कभी कर पाया, न उसकी इच्छा ही बलवती हुई । काव्य-रचना मुख्य रूप से हिन्दी में, कुछ उर्दू में, और कभी-कभाद आंग्ल भाषा में की तो सही, पर बहुत अधिक नहीं। सच कहूं तो:
आँख मूंद लेने पर जो कुछ भी दिखा
बिना कलम कागज़ के जीवन में लिखा
जहां एक ओर जीवन-संगिनी वन्दना ने स्वयं कष्ट सहते हुए भी वास्तविक अर्थों में मेरा पूरक बनना स्वीकार किया, वहीं दूसरी ओर दोनों बच्चों, सीपी और नचिकेता, ने भी मेरे जीवन के ढर्रे को समझते हुए हर तरह से मेरा साथ दिया। गुरुजनों के आशीर्वाद व मित्रों के स्नेहपूर्ण प्रोत्साहन के फलस्वरूप ही मैं अपनी यात्रा के इस चरण तक पहुंचा हूं कि बकौल मिर्ज़ा गालिब:
गोशे में कफ़स के मुझे आराम बहुत है