घना कोहरा,
छिपा सूरज,
गगन ओझल,
धरा धूमिल,
खड़े खोए पेड़-पौधे,
हवा गुमसुम
किंतु
अब भी,
शब्द-शाला में प्रदीपित
अर्थमाला
सोहती है-
मोहती है-
छंद से छल-छंद छाया
मोचती है,
काव्य की
अभिव्यक्तियों से
भेद भव का खोलती है।
रचनाकाल: २१-१२-१९९०