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घन-यामिनी / राजेन्द्र प्रसाद सिंह

आधी रात, गगन में घन का मन्द-तरंगित सागर,
उठता लहक फेन-लेखा में बड़वानल रह-रहकर,
प्रतिबिम्बत उन्मथित भूमि का ह्रदय शून्य-दर्पण,
घोर वज्र-गर्जन सोया नीरव-नीरव धड़कन में,
भीत पुतलियों पर भावी की, सघन तिमिर घिर आया,
झूल रही तारों के मुख पर अंध प्रलय की छाया,
झंझानिल में उल्काहत हो डूबा शुभ्र सुधाकर,
आधी रात याद भी आती अब न चाँदनी दूभर!

फिर बह चला प्रभंजन यह अजगर के उच्छवासों-सा,
हर खद्योत-पुंज टकराता, भ्रम में विश्वासों-सा,
टूट छूटती चट्टानों-सी घड़ियाँ करवट लेतीं,
समतल के चढ़ते स्वप्नों को क्रूर चुनौती देतीं,
दादुर का स्वर : मौन अभावों का आकुल कोलाहल,
अर्थ-दनुज का स्वगत गहन झिल्ली के स्वन में केवल,
नव सुर-तरु का हर अंकुर फिर गरल-त्रास से प्यासा,
फिर वह चला प्रभंजन, उखड़ी नव विटपी-सी आशा!

घबराई बौछार झहर ‘टिन’ को जर्जर छतरी पर,
भहराई दीवार, गिरा बूढ़ी मानवता का घर,
खंडित होकर रहे पंक में घुल-घुल प्राण-विसर्जन-
मिट्टी पर नभ के रंगों से अंकित चित्र चिरंतर,
बार-बार फुंकार रही नागिनी हठीली ऐंठी,
मृत मयूर की पांखो पर कुण्डली मारकर बैठी,
फिर भी मुझमें कौन कि जो मुझमें कहता धीरज धर,
‘घहराई बौछार किन्तु निशि भी ढल रही निरंतर! ’