ये मेरा घर है
जहाँ रात के ढाई बजे मैं
खिड़की के क़रीब
लैम्प की नीम रौशनी में बैठा
कविता लिख रहा हूँ
जहाँ पड़ोस में लछन बो
अपने बच्चों को पीटकर सो रही है
और रामचनर अब बँसखट पर ओठँग चुका है
अपनी मेहरारू-पतोहू को
दिन भर दुवार पर उकड़ूँ बैठकर
भद्दी गालियाँ देने के बाद ...।
जहाँ बाँस के सूखे पत्तों की खड़-खड़ आवाज़ें आ रही हैं
जहाँ एक कुतिया के फेंकरने की आवाज़
दूर से आती सुनाई पड़ रही है
जहाँ पड़ोस के
खण्डहर मकान से
भकसावन-सी गन्ध उठ रही है
जहाँ अनार के झाड़ में फँसी पन्नी के फड़फड़ाने की आवाज़
रह-रह कर सुनाई दे रही है
जहाँ पुआल के बोझों में कुछ-कुछ हिलने का आभास हो रहा है
जहाँ बैलों के गले में बन्धी घण्टियाँ
धीमे-धीमे स्वर में बज रही हैं
जहाँ बकरियों के पेशाब की खराइन गन्ध आ रही है
जहाँ अब्बा के तेज़ खर्राटे
रात की निविड़ता में ख़लल पैदा कर रहे हैं
जहाँ माँ
उबले आलू की तरह
खटिया पर सुस्ता रही है
जहाँ बहनें
सुन्दर शहज़ादों के स्वप्न देख रही हैं ।
अचानक यह क्या ?
चुटकियों में पूरा दृश्य बदल गया !
मेरे पेट में तेज़ मरोड़ उठ रहा है
और मेरी आँखें तेज़ रौशनी से चुन्धिया रही हैं
तोपों की गरजती आवाज़ों से मेरे घर की दीवारें थर्रा रही हैं
और मेरे कान से ख़ून बह रहा है
अब मेरा घर
किसी फ़िलिस्तीन और सीरिया और इराक़
और अफ़ग़ानिस्तान का कोई चौराहा बन चुका है
जहाँ हर मिनट एक बम फूट रहा है
और सट्टेबाजों का गिरोह नफ़ीस शराब की चुस्कियाँ ले रहा है।
अब आसमान से राख झड़ रही है
दृश्य बदल चुका है
लोहबान की तेज़ गन्ध आ रही है
अब मेरा घर
उन उदास-उदास बहनों की डहकती आवाज़ों
और सिसकियों से भर चुका है
जिनके बेरोज़गार भाई पिछले दँगों में मार दिए गए।
मैं अपनी कुर्सी में धँसा देख रहा हूँ
दृश्य को फिर बदलते हुए
क्या आप यक़ीन करेंगे ?
जँगलों से घिरा गाँव
जहाँ स्वप्न और मीठी नींद को मज़बूत बूटों ने
हमेशा के लिए कुचल दिया है
जहाँ बलात्कृत स्त्रियों की चीख़ें भरी पड़ी हैं
जिन्हें भयानक जँगलों या बीहड़ वीरानों में नहीं
बल्कि पुलिस स्टेशनों में नँगा किया गया ।
जंगलों से घिरा गाँव
जहाँ स्वप्न और मीठी नींद को मज़बूत बूटों ने
हमेशा के लिए कुचल दिया है
जहाँ बलात्कृत स्त्रियों की चीख़ें भरी पड़ी हैं
जिन्हें भयानक जंगलों या बीहड़ वीरानों में नहीं
बल्कि पुलिस स्टेशनों में नंगा किया गया ।
मेरा यक़ीन कीजिए
दृश्य फिर बदल चुका है
आइए मेरे बगल में खड़े होकर देखिए —
उस पेड़ से एक किसान की लाश लटक रही है
जो क़र्ज़ में गले तक डूब चुका था
उसके पाँव में पिछली सदी की धूल अब तक चिपकी है
जिसे साफ़ देखा जा सकता है
बिना मोटे चश्मों के ।
मेरा यक़ीन कीजिए
हर क्षण एक नया दृश्य उपस्थित हो रहा है
और मेरे आस-पास का भूगोल तेज़ी से बदल रहा है
जिसके बीच
मैं, बस, अपना घर ढूँढ़ रहा हूँ ...।
(रचनाकाल: 2017)