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घर / कविता गौड़

खाली मकान को घर कहते हो
ना बच्चों की किलकारियाँ
न सास की दुलार भरी फटकार
न ननद से तकरार व मुनहार
न ससुर व जेठ के खखारने
का संकेत
न बहु के पायल की मीठी
झुन-झुन सी आवाज
न देवर भाभी का मीठा परिहास
न शाम को पड़ोसिनों की बैठक
न मोहल्ले के बच्चों की धूम-धड़ाका
यह सब ना होते हुए भी
मकान अब घर कहलाते है
फर्नीचर व सजावट से होता है
घर के व्यक्तियों का आँकलन
लोगों के रहने की जगह में
रहते हैं अब लग्जरी सामान
ऐसा ही होता है आज का मकान
नहीं-नहीं आज का घर....आज का घर