इस बरामदे से उस बरामदे,
इस कमरे से, उस कमरे
सिर्फ़ भाग रही हूँ मैं ।
एक ही घर है और उसमे कमरे ही कितने हैं,
गिनती भर,
इसलिए आखिरकार घूम-घूमकर
जहाँ से शुरु किया था
वहीँ थक कर लौट आई ।
दीवार की तस्वीर
जितनी भी रँगीन हंसी हंसे,
फ़र्श पर पड़ती छाया लेकिन
उसका विरोध करती है ।
कितनी तेज़-तेज़ आवाज़ चीत्कार होते हैं इस घर में,
काँच होते हैं टुकड़े-टुकड़े,
बर्तन–भाण्डों की होती है उठा-पटक,
प्रचण्ड कलह में उन्मत्त हो
इस घर के दरवाज़े-खिड़कियाँ- छत-दीवारें- दालान भी ।
मैं भागते-भागते
एकदम थककर
अपना आँचल बिछाकर
इस उन्मत्त फ़र्श पर लेट जाती हूँ ।
(3 मई 1966, कलकत्ता)
मूल बाँगला से मीता दास द्वारा अनूदित