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घर / प्रत्यूष चन्द्र मिश्र

वह बचपन का कोई दिन था
जब पिता के सपने ने मुझे दूर कर दिया था घर से
रही होगी अपनी भी कोई इच्छा अचेतन में कभी
घर को इसकी ज़रूरत भी थी

मुझे भी ज़रूरत हो सकती है घर की
यह बात किसी के जेहन में नहीं थी

विस्थापितों-सा भटकता रहा
अपना तम्बू लिए
धरती के इस कोने से उस कोने तक

सीमाएं कभी मेरी दृष्टि में नहीं रही
न शासकों की भाषाएँ
कोई चमकता ख़्वाब भी नहीं

मैं अपने दरकते सीने के साथ
हर बार घर जाने की इच्छा लिए
घर से दूर होता रहा

ख़ून और आँसुओं से सना रहा मेरा स्वप्न-संसार
जिसमें दीमकों की लगातार आवाजाही थी
बाद, बहुत बाद में समझ में आया
किसी एक ख़्वाब के सच होने में
किसी दूसरे ख़्वाब का टूट जाना भी छिपा रहता है

शहरों की भटकन में नहीं था मेरा घर
मैं जिस घर में रहता था वहाँ से बहुत साफ़-साफ़
दिखता था क्षितिज और आकाश

आज शरणार्थी शिविरों से भरे इस शहर में
जब हर तरफ़ उड़ रही है निराशा की धूल
और उम्मीद पर भारी पड़ रही है ऊब

अनन्त आकाश के अन्तहीन सपने को छोड़
मैं वापस जाना चाहता हूँ अपने घर