सूर्य आ खड़ा होता है
हमारे घर की देहली पर,
उसके महाघोष के सथ ही,
हमें रज़ाई से
बाहर खदेड़ने को;
आलस्य के वशीभूत, पलंगतोड़ हम,
घोंघों के जैसे,
धँसते जाते हैं
ऊनी लिहाफ़ों में;
जागकर सबसे पहले,
लवे के सथ-साथ,
स्वागत करते
दर्वाज़े को खटखटाती
सूर्याँशुओं का;
और फिर सुनते हुए
हमारी पुकार―
प्रात: की बिस्तरी चाय के लिए;
वह रहती है हमेशा
वक्त की पाबंद,
चाहे गर्मी हो, बर्सात हो,
या फिर कड़कड़ाती
सर्दी हो, बाहर हिमपात हो,
वह करती है सेवा
नि:स्वार्थ भाव से,
भृकुटि पर
बिना किसी बल के;
वह माँ है, पत्नी है,
चाची है, भाभी है,
बहू है―सब
एक ही समय पर;
हर सुबह
होती है प्रकट वह-
चाय की प्यालियाँ लेकर
हर पलंग के पाये पर।