मैं लता भवन में आ ठहरा
कोकिल मेरे ऊपर कूकी
फूलों से झर-झर सुरभि झरी
केसर से पीत हुई भ्रमरी
केसर से दूर्वा ढकी हुई
कितना एकांत यहाँ पर है
मैं इस कुंज में दूर्वा पर
लेटूँगा आज शांत होकर
जीवन में चल-चल कर, थक कर
ये पद जो गिरी पर सदा चढ़े
छोटी-सी घाटी में उतरे
सुनसान पर्वतों से होकर
घनघोर जंगलों में विचरे
ये पद विश्राम माँगते अब
इस हरी-भरी धरती में आ
जो पद न थके थे अभी कभी
वे अब न सकेंगे पल-भर भी