जैसे अपने ही पाँवों की
आवा-जाही से अनजान
यह भीतर तक आता
घर का रास्ता -
किसी के लौटने का
इंतज़ार करता हो बरसों-बरस !
हमीं ने बनाया था जिसे
अपनी जीवारी और जान की खातिर
उजाड़ में भागते आँखें मींच
हमारे ही नंगे पाँवों ने झेली थी
वह चिलचिलाती धूप -
समय की मार,
अपनों की बेरुखी और बिसराव से
बरसों अनजान रही यह देहरी -
यह अपनापे का बचा हुआ संसार !
आदत की बात नहीं है -
अपने अस्तित्व और
घर की सलामती के लिए
रोज़ सवेरे चाहे-अनचाहे
निकलना ही होता है घर से बाहर
अपने हिस्से की मेहनत का सीगा खोजने
अपने ही सरीखे हज़ारों-लाखों के बीच
हम्माली करते, हाड़ तोड़ते
अपने को बचाए रखने का जतन करते -
उफ़नती धाराओं और घाटियों के पार
अनजाने निकल जाते दूर
अपनों की दीठ से
बांधे रखते अपनी पिराती पीठ पर
छूटी देहरी का दु:ख -
यह ख़याल रखते कि संध्या-काल
अंधेरा घिर आने से पहले
लौट जो आना है घर की ओर,
झाड़ते-बुहारते-सींचते
तमाम तरह के अभावों -
अनहोनियों के बावजूद
थामे जो रहते थे अपनी जान से
कि कोई आँच नहीं आए
बच्चों की नींद और उनके
सपनों में पलते घर-संसार में !
कोई अलग तजुर्बा नहीं है
इस अंधेरी दुनिया से उबर आने का -
बिखरते सपनों और
दरकते-टूटते आकारों में
औचक दब जाने का भय
यों अनायास ही नहीं उग आया था
हमारी आँखों में !
मैं नहीं खोज पाता
इस अबूझ ऊहापोह और
अबोलेपन से निकल आने का रास्ता,
सिर्फ होना भर काफ़ी होता
जो तुम्हारी आँख में साकार
मैं बना रहता यहीं तुम्हारे पास
इस रेतीली परिधि के भीतर
देहरी के सामने !
अंधेरे से आहत जब भी लौटता हूं
थोड़े-से उजास, हवा और
सपनों की बची हुई दुनिया में
तुम्हारे प्यार और घर के रास्ते की
निशानदेहियाँ खोजता,
तुम्हारी आँखों में उमड़ते
उलाहनों के बीच अक्सर पाता हूँ -
इतने अकाल बरसों के बाद भी
घर सलामत है तुम्हारी छाँव में ।